Resource centre on India's rural distress
 
 

ऐसे तो नहीं रुकेंगी किसानों की आत्महत्याएं -- के सी त्यागी

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2014-2015 के दौरान आत्महत्या के मामलों में 42 फीसदी की वृद्धि दर्ज हुई है। रिपोर्ट के मुताबिक, 2014 में 5,650 किसानों द्वारा आत्महत्या की गई थी, जो वर्ष 2015 में बढ़कर 8,007 तक पहुंच गई। तस्वीर इतनी भयानक तब है, जब इस श्रेणी से कृषि मजदूरों द्वारा की गई आत्महत्या की संख्या बाहर रखी गई है। वर्ष 2014 में कुल 6,710 खेतिहर मजदूरों द्वारा की गई आत्महत्या की तुलना में इस वर्ष थोड़ी गिरावट के बावजूद 4,595 आत्महत्या की घटनाएं दर्ज की गईं। आंकड़ों से स्पष्ट है कि वर्ष 2015 में देश के कुल 12,602 कृषकों ने आत्महत्या की है। चिंता इसलिए बढ़ जाती है कि आंकड़े घटने की बजाय निरंतर बढ़ रहे हैं। वर्ष 2013 से 2014 के बीच की गई आत्महत्या की संख्या में पांच प्रतिशत की वृद्धि और 2014 से 2015 में दो फीसदी की वृद्धि बताती है कि समस्या उलझती जा रही है। एक और भयभीत करने वाला आकड़ा यह है कि पिछले 21 वर्षों में 3,18,528 किसानों ने आत्महत्या की है। यानी प्रतिवर्ष औसतन 15,168 किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं।


इस रिपोर्ट में यह बात भी सामने आई है कि आत्महत्या करने वाले कुल किसानों की लगभग 72 फीसदी तादाद छोटे व गरीब किसानों की रही है, जिनके पास दो हेक्टेयर से भी कम जमीन है। रकबा छोटा होने के कारण उन्हें नकदी जमीन, महंगी बीज, कीटनाशक, मजदूरी तक का महंगा खर्च कर्ज लेकर वहन करना पड़ता है। प्राकृतिक व अप्राकृतिक कारणों से उत्पादन सही न हो पाने की स्थिति में किसान स्थानीय महाजनों अथवा बैंकों से लिए कर्ज चुका पाने में असमर्थ हो जाता है।


ताजा आंकड़े इस ओर भी इशारा करते हैं कि आत्महत्या करने वाले किसानों का लगभग 80 फीसदी हिस्सा बैंक कर्ज के बोझ से दबा था। यह आंकड़ा किसान आत्महत्या को लेकर अब तक बनी भ्रांति को भी समाप्त करता है कि किसान महाजनों से लिए कर्ज और उनके उत्पीड़न की वजह से आत्महत्या कर लेता है। नकदी फसल तथा औद्योगिक क्रांति वाले राज्यों में जोखिम बड़ा होता है, लागत भी ज्यादा होती है। बंपर उत्पादन के बाद फसलों का दाम न मिल पाना दरअसल कृषि व्यवस्था की विफलता को जाहिर करता है।


महंगाई का बढ़ता बोझ, पहाड़-सा कर्ज और आय की अनिश्चितता भारतीय कृषि के लिए अभिशाप बन चुके हैं। एक ओर, जहां हर वस्तु की कीमत में बेतहाशा वृद्धि हुई है, फसलों की लागत मूल्य बढ़ोतरी में कंजूसी बरती गई। पिछले 20-30 वर्षों के दौरान सरकारी, गैर-सरकारी व अन्य निजी क्षेत्र के कर्मचारियों के वेतन में 300 फीसदी तक की बढ़ोतरी हुई है, पर कृषि क्षेत्र आज भी उचित दाम बढ़ोतरी के स्वाद से दूर है। ‘लाभकारी' शब्द आज भी दूर की कौड़ी है। विगत दो-तीन दशकों के दौरान धान के समर्थन मूल्य में महज 29 गुना वृृद्धि देखी गई है, जो बढ़ती महंगाई के अनुपात में अपर्याप्त है। नतीजन, खेती का रकबा घटता जा रहा है। देश में खेती योग्य भूमि में प्रतिवर्ष औसतन 30 हजार हेक्टेयर की कमी हुई है।


औद्योगिकीकरण, बाजारीकरण, विदेशी निवेश, सभी आवश्यक हैं, परंतु इस आड़ में ग्रामीण अर्थव्यवस्था की जड़ को कमजोर करना राष्ट्रीय क्षति होगी। सरकारें इस तथ्य को समझने में टाल-मटोल करती रही हैं कि कृषि और ग्रामीण भारत लगातार हाशिये पर जा रहे हैं। आजादी के बाद के दशक में जहां कृषि, नेशनल जीडीपी में लगभग 55 फीसदी की भागीदारी निभाती थी, आज कृषकों की तादाद बढ़ने के बावजूद 14 से 15 फीसदी तक सीमित है। वर्तमान ‘मूल्य निर्धारण नीति' से किसानों का भला नहीं हो पाया है।


इस स्थिति में मूल्य निर्धारण प्रक्रिया में ‘मूल्य नीति‘ को दरकिनार कर अब ‘आय नीति' की जरूरत महसूस होने लगी है। कृषि वैज्ञानिक व संगठन भी अब इसकी मांग करने लगे हैं। फसलों की बुआई से लेकर अंतिम प्रक्रिया तक आई लागत का सही आकलन न होना एमएसपी की प्रक्रिया की बड़ी त्रुटि है, जिसका सीधा असर किसानों पर पड़ता है। यह भी सच है कि हाल के कुछ वर्षों की राजनीति ‘बाजार' आधारित होती दिखी है। कृषि और कृषक अब चुनाव के मुख्य बिंदु नहीं रहे। ग्रामीण भारत के मुद्दे कभी राजनीति की धुरी हुआ करते थे, अब वे गैर-बाजिव विषय बने हुए हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)