गरीबी में गिरावट संतोषजनक--- अजीत रानाडे

Share this article Share this article
published Published on Jul 10, 2018   modified Modified on Jul 10, 2018
अंतरराष्ट्रीय रूप से सुप्रसिद्ध ब्रूकिंग्स संस्थान की एक रिपोर्ट यह बताती है कि भारत में गरीबी में नाटकीय गिरावट आयी है. मई 2018 के आकड़े लिये जाएं, तो भारत में घोर दरिद्रता की स्थिति में रहनेवालों की संख्या 7.30 करोड़ है, जबकि नाइजीरिया में ऐसे लोगों की तादाद 8.70 करोड़ है. ऐसा पहली बार हुआ है कि अपनी जनसांख्यिक विशालता के बावजूद भारत में अत्यंत निर्धनों की संख्या विश्व में सर्वाधिक नहीं रही.

बहुत दिन नहीं बीते, जब अंतरराष्ट्रीय परिभाषाओं के अनुसार विश्व के बीस प्रतिशत से भी अधिक गरीब भारत में होते थे. वर्ष 2018 में विश्व के गरीबों की कुल अनुमानित संख्या 64 करोड़ मानी जाती है, जिसका अर्थ है कि भारत में अब इसकी 11 प्रतिशत आबादी ही निवास करती है.

गरीबी की यह परिभाषा विश्व बैंक द्वारा वर्ष 2015 में निश्चित की गयी थी, जिसके मुताबिक 1.90 डॉलर से कम खर्च करके दिन काटता व्यक्ति गरीब माना गया और सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) के अंतर्गत पहला लक्ष्य वर्ष 2030 तक विश्व में गरीबों की संख्या शून्य तक पहुंचा देना तय किया गया.

चूंकि गरीबों की सबसे अधिक संख्या भारत में रहती थी, इसलिए यह स्वाभाविक ही था कि भारत पर विश्व का विशिष्ट ध्यान होता. यहां गरीबी में नाटकीय तेजी से गिरावट आयी और 10-12 वर्षों के अंतराल में हमने बिल्कुल निर्धनों की तादाद 27 करोड़ से घटाकर 7.30 करोड़ पर ला दी.

इस दर से, वर्ष 2022 तक भारत से गरीबी अपनी परिभाषा के अनुसार लगभग खत्म हो चुकी होगी. निर्धनता में कमी की इस दर ने भारत को मलयेशिया, दक्षिण कोरिया एवं चीन जैसे उन दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों की पांत में ला दिया है, जिनके ऐसे ही प्रयासों को अत्यंत सफल माना जाता है. हमारे देश में यह काम इतनी देर से होने की प्रमुख वजह यह रही कि यहां आर्थिक सुधार वर्ष 1991 से आरंभ हुए, जबकि चीन इस मामले में हमसे 13 वर्ष आगे था. इसमें कोई संदेह नहीं कि गरीबी घटाने में आर्थिक सुधारों ने अहम भूमिका अदा की.

यह तो तय है कि भारत में गरीबी के घटने को लेकर पहले होती रही सभी बहसें अब समाप्त हो चुकी हैं, फिर भी पिछले कई वर्षों में केंद्रीय सांख्यिकीय संगठन द्वारा प्रकाशित राष्ट्रीय एकाउंट्स आंकड़े एवं राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) द्वारा प्रकाशित प्रतिदर्श (सैंपल) सर्वेक्षण आंकड़ों के बीच भिन्नता रही है. पहले का इस्तेमाल राष्ट्रीय जीडीपी, उपभोग एवं निवेश के आकलन में, जबकि दूसरे का उपयोग गरीबी के अनुमित आंकड़ों में किया जाता रहा है. इन दोनों आंकड़ों की भिन्नता एक कटु बहस का मुद्दा रही है.

राष्ट्रीय एकाउंट्स शिविर का यह यकीन है कि देश की गरीबी दर सिर्फ इसलिए बढ़ी-चढ़ी दिखती है कि तत्संबंधी सर्वेक्षण के आंकड़े पूरी आय का आकलन नहीं करते. विवाद का एक अन्य आधार आकलन हेतु ली जानेवाली अवधि से संबद्ध रहा है.
यदि सर्वेक्षण के उत्तरदाताओं से यह पूछा जाए कि आपने पिछले सात दिनों के अंतर्गत क्या खाया/खर्च किया/उपभोग किया है, तो संभवतः वे खर्च की सही राशियां बता सकेंगे, जो ऊंची होने की वजह से उनकी गरीबी कम होने का संकेत देंगी.
पर उनसे पिछले तीस दिनों को हिसाब पूछने पर वे वास्तविक से कमतर राशियां ही बता सकेंगे, जिससे उनकी गरीबी ज्यादा बढ़ी निकलेगी.

विवाद का तीसरा आधार स्वयं गरीबी रेखा ही रही है, जिसे व्यक्ति द्वारा खाद्य के रूप में ली जानेवाली कैलोरी को प्रोटीन, अनाजों, दूध, मांस की कीमतों के हिसाब से रुपये में बदल कर तय किया जाता है, मगर इसमें मुद्रास्फीति के सामंजन, कीमतों में क्षेत्रीय भिन्नता तथा खरीदी जानेवाली सामग्रियों की बजाय स्वयं उपजायी गयी सामग्रियों की कीमतों का ख्याल नहीं रखा जाता. यह बहस बहुत लंबी है और इस आलेख में इसके सभी आयामों का स्पर्श नहीं किया जा सकता. बहरहाल, भारत में गरीबी घटी, जिस प्रक्रिया में 2004 के बाद तेजी आयी.

पहले की स्थिति यह थी कि गरीबी ग्रामीण क्षेत्रों और वहां भी कृषि गतिविधियों में ज्यादा-से-ज्यादा केंद्रित थी. मनरेगा, बेरोजगारी बीमा जैसी पहलों ने वहां आय में इजाफा लाकर गरीबी घटाने में निश्चित मदद पहुंचायी है. ग्रामीण सड़कों, सिंचाई तथा वनीकरण परियोजनाओं ने भी गरीबी में अप्रत्यक्ष गिरावट लायी है. इसी तरह, इलेक्ट्रॉनिक राष्ट्रीय कृषि बाजार तथा न्यूनतम समर्थन मूल्यों का भी इस दिशा में अपना योगदान रहा.
तो क्या अब हम संतुष्ट बैठ जाएं? बिल्कुल नहीं, क्योंकि यह न्यूनतम खर्च केवल प्राण रक्षा ही कर सकता है. इसलिए, अब हमें अपनी गरीबी रेखा स्वयं निर्धारित करने की जरूरत है.

हमें शहरी गरीबी पर तो गौर करना ही होगा, साथ ही नयी परिभाषा में गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्यचर्या, पेयजल, प्राथमिक शिक्षा एवं स्वच्छता तक पहुंच को भी शामिल करना ही होगा. हमारी खुशहाली के इन नये संकेतकों को लेकर हमारी प्रगति मापने में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) हमारी मदद कर सकता है.

इसके अलावा, हम बड़ी तादाद में जॉब और आजीविकाओं के सृजन तथा विषमता की समाप्ति को भी नजरअंदाज नहीं कर सकते. मगर, फिलवक्त तो हम गरीबी में गिरावट का जश्न मना ही सकते हैं.
(अनुवाद: विजय नंदन)


https://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/1180817.html


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close