नकद पैसे का खेल- बनवारी

Share this article Share this article
published Published on Feb 15, 2013   modified Modified on Feb 15, 2013
जनसत्ता 14 फरवरी, 2013: मनमोहन सिंह सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि गरीबी एक आर्थिक और राजनीतिक समस्या के बजाय अब केवल वित्तीय समस्या रह गई है। केंद्र सरकार की प्राथमिक चिंता अब न बेरोजगारी है, न महंगाई। देश की इन दो सबसे बड़ी समस्याओं से मुंह चुराने का उसने एक आसान उपाय निकाल लिया है। देश के गरीब लोगों के हाथ में दमड़ी रख दो; इससे सरकार के कल्याणकारी होने का ढिंढोरा भी पीटा जा सकेगा और उस ढिंढोरे के बल पर वोट भी समेटे जा सकेंगे। सरकार एक तिहाई गरीब परिवारों की जिम्मेदारी से भी बच जाएगी। पता नहीं यह आशावादिता कितनी सही है। पर अभी तो कांग्रेस के कर्ताधर्ताओं को यही लग रहा है कि वे अपनी इस जुगत से अगले वर्ष आम चुनाव की वैतरणी पार कर जाएंगे।
देश की गंभीर आर्थिक समस्याओं के सरलीकृत उपाय ढूंढ़ने का यह सिलसिला ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना से आरंभ हुआ था। अत्यंत प्रगतिशील मानी गई इस योजना के अंतर्गत सरकार ने ग्रामीण गरीबों को वर्ष में कम से कम सौ दिन न्यून मजदूरी पर काम देने की व्यवस्था की थी। आरंभ में इस योजना का सबसे बड़ा लाभ यह दिखाई दिया कि पिछड़े इलाकों से काम धंधों की तलाश में दूरदराज जाने वाले मजदूरों का पलायन कुछ हद तक रुक गया। हाल ही में इस बड़ी उपलब्धि का उल्लेख सोनिया गांधी ने इस योजना का राजनीतिक लाभ उठाने के उद्देश्य से आयोजित एक कार्यक्रम में किया। लेकिन इस योजना से गरीब परिवारों के जीवन-स्तर में कोई सुधार हुआ हो, ऐसा दावा तो इस योजना के बड़े-बड़े पैरोकार भी नहीं कर सकते।
कुछ समय पहले तक हमारे योजनाकारों और राजनीतिक नेतृत्व के सामने यह बड़ी चुनौती थी कि देश की उस एक तिहाई से अधिक आबादी की आर्थिक स्थिति को कैसे सुधारा जाए जो विकट गरीबी में जी रही है। ग्रामीण गरीबी दूर करने का सामान्य तरीका यही था कि कृषि क्षेत्र की उत्पादकता बढ़े, उसके आधार पर ग्रामोद्योग का विकास हो और गरीब परिवारों को जीवनयापन के स्थायी साधन उपलब्ध हो सकें। क्योंकि कृषि क्षेत्र में अपेक्षित वृद्धि नहीं हुई और ग्रामीण उद्योगों का जाल नहीं फैला, योजना आयोग हर गरीब परिवार को एक बकरी देने, मुर्गीपालन और मछलीपालन को बढ़ावा देने जैसे दूसरे उपाय सुझाने लगा। वास्तव में यह हमारी आर्थिक योजनाओं की विफलता थी। उसे एक हद तक स्वीकार करते हुए सिर के बल खड़े योजना-तंत्र को पैरों पर खड़ा करने का प्रयत्न किया गया। ग्राम स्तर पर योजना बनाने का अभियान आरंभ हुआ। पर अगर योजना का पैसा दिल्ली से ही आना है तो स्थानीय योजना कभी सार्थक नहीं हो सकती थी।
मनमोहन सिंह ने देश की गरीबी दूर करने का दायित्व अब योजनाकारों के कमजोर कंधों से हटा दिया है। सरकार को गरीब परिवारों को सीधे पैसा बांटने में अपना राजनीतिक फायदा भी दिखाई दे रहा है और गरीबी दूर करने के अपने राजनीतिक दायित्व से भी उसे मुक्ति मिल रही है। लेकिन यह उपाय कितने दिन के लिए है कोई नहीं जानता।
भविष्य की एक झलक वित्तमंत्री पी चिदंबरम की इस चेतावनी से पाई जा सकती है कि सरकारी सौगात पर अधिक निर्भर मत रहिए। काम-धंधे पैदा कीजिए, जैसे कि काम-धंधे पैदा करना गरीब परिवारों के बस की बात हो। ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना अपने आप में एक अच्छा विचार है। अगर हम अपने देश के असमर्थ और असहाय लोगों का दायित्व ग्रहण नहीं कर सकते तो अपने राजनीतिक तंत्र को लोकतंत्र कैसे कह सकते हैं। लेकिन तब इस योजना का उद्देश्य पैसे बांटना नहीं, लोगों को जीवनयापन के स्थायी साधन उपलब्ध कराना होना चाहिए था। एक तरफ अकुशल मजदूरों को कोई न कोई उत्पादक कुशलता दिलाई जानी चाहिए थी।
दूसरी तरफ यह प्रयत्न किया जाना चाहिए था कि इस योजना से गांवों में मूलभूत ढांचे का विकास हो। लेकिन यह योजना तो अकुशल मजदूरों को अकुशल बनाए रखने के लिए ही बनाई गई है। क्योंकि कुशल होते ही वे योजना से बाहर हो जाएंगे। वे गैंती-फावड़े के अलावा किसी दूसरे औजार का उपयोग नहीं कर सकते। खुद पूर्व ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश कह चुके हैं कि इस योजना के अंतर्गत जो काम कराए गए वे इतने घटिया निकले कि एक बरसात में धुल गए।
अगर देश में सार्वजनिक साधनों के उपयोग की बड़ी निगरानी करने वाली कोई संस्था होती तो यह योजना या तो सुधार ली गई या बंद कर दी गई होती। पंचायतों और विधायिकाओं का यह दायित्व बनता है कि वे सार्वजनिक साधनों के सदुपयोग की गारंटी करें। लेकिन उन्होंने अभी तक अपने इस दायित्व को गंभीरता से समझा ही नहीं है।
केंद्र सरकार दुनिया भर में अपनी इस प्रगतिशील योजना का ढिंढोरा पीटते हुए कह रही है कि पिछले साल इस योजना के अंतर्गत नौ अरब डॉलर के बराबर राशि गरीब परिवारों को मिली। लेकिन इस राशि का कितना सदुपयोग हुआ यह देखने और दिखाने की फुर्सत किसी को नहीं है। अब इस योजना की प्रगति वैसे भी रुक गई है। पिछले वर्ष योजना के अंतर्गत दिए जाने वाले रोजगार में एक चौथाई कमी आई है। अनेक राज्यों, जिनमें कई कांग्रेस शासित राज्य हैं, ने इस योजना में रुचि लेना कम कर दिया है।
वैसे रोजगार की समस्या न ग्रामीण क्षेत्र तक सीमित है, न विकट गरीबी में पड़े परिवारों तक। देश में शिक्षा का विकास हो रहा है, लेकिन रोजगार उससे कदम नहीं   मिला पा रहा। देश में सारी बहस आर्थिक वृद्धि के आंकड़ों पर केंद्रित रहती है। लेकिन बढ़ती हुई बेरोजगारी और साधनहीनता पर बात नहीं होती। सिर्फ बेरोजगारी नहीं, आय में असमानता भी एक बहुत बड़ी समस्या है।
देश के अधिकतर शिक्षित युवा अपनी ऊंची डिग्रियों के बावजूद सात-आठ हजार रुपए महीने से ऊंची नौकरी नहीं पा पाते। जबकि साधन संपन्न परिवारों के बच्चे लाखों का वेतन पाने लगे हैं। बढ़ती हुई असमानता ने निर्वाह लागत बढ़ा दी है। इससे जो वेतन कल तक सामान्य माना जाता था, आज उसमें पूरे परिवार का पेट भरना मुश्किल है। दिखावटी खर्च बढ़ रहे हैं, मूलभूत जरूरतें पूरी नहीं हो पा रहीं।
गरीब आबादी के लिए रोजगार पैदा करने की चिंता सरकार ने पहले छोड़ दी थी। अब उसने उनकी निर्वाह लागत मर्यादा में रखने की चिंता भी छोड़ दी है। आजादी के बाद यह पहला अवसर है, जब सरकार बेझिझक सब वस्तुओं के दाम बढ़ाती जा रही है। सब जानते हैं कि मुद्रा के विस्तार के साथ-साथ लोगों की आमदनी बढ़ती है तो उनके उपयोग की वस्तुओं की कीमतें भी बढ़ती हैं। पर यह देखना सरकार की जिम्मेदारी होती है कि वस्तुओं के दाम इस मर्यादा में बढ़ें कि उनकी आय में हुई बढ़ोत्तरी निरर्थक न हो जाए। ऐसा लगता है कि इस दायित्व की अब सरकार को चिंता नहीं रह गई है।
बढ़ती महंगाई से ध्यान बंटाने के लिए सरकार ने पूरी बहस को एक नया मोड़ दे दिया है। उसने सबसे पहले महंगाई की बहस को अनुदान से स्थिर रखी जाने वाली कीमतों में सीमित कर दिया। फिर ऐसी वस्तुओं की कीमत अनाप-शनाप बढ़ाते हुए यह घोषणा की कि गरीब परिवारों में अनुदान की राशि सीधे नकद दी जाएगी। यह तरीका सबसे पहले ब्राजील में अपनाया गया था। आर्थिक विकास के अंतरराष्ट्रीय लंबरदारों का मानना है कि इस योजना से ब्राजील के गरीबों को लाभ हुआ।
इस प्रचार में कितनी सच्चाई है, इसे ब्राजीलवासी जानें। लेकिन भारत में इसके क्या परिणाम होंगे, इसकी अभी तक कोई गंभीर गवेषणा की नहीं गई है। सबसे पहली बात तो यह है कि महंगाई की मात्रा को देखते हुए नकद मिलने वाली अनुदान की राशि बहुत कम है। सीधी-सी बात यह हुई कि इस नकद सहायता से गरीब परिवारों की महंगाई से बढ़ी समस्याओं की भरपाई नहीं होगी।
काम धंधों की कमी और महंगाई मिल कर देश की सबसे गरीब जनता के सामने जो समस्या पैदा कर रही हैं, उसका जब परिवार के मुखिया के पास कोई हल नहीं होगा तो वह नकद राशि का क्या करेगा? सबसे सरल उत्तर यह है कि वह अपना दुख भुलाने के लिए शराब पीएगा। यह सब जानते हैं कि कम आय वाले परिवारों के घर चलाने की जिम्मेदारी अधिकतर महिलाओं के सिर आती है। चाहे वे छोटे काम-धंधे करके परिवार का पेट पालें या परिवार के मुखिया की आमदनी से, अपना पेट काट कर बाकी सबको खिलाएं। यह अनुदान की राशि उनके खाते में नहीं जाएगी। जाएगी परिवार के मुखिया पुरुष के खाते में। वह उस पैसे का क्या करेगा, इसका नियंत्रण कम से कम गृहिणी के हाथ में नहीं होगा।
इस योजना के पैरोकार उसके प्रगतिशील स्वरूप का बखान करने के लिए तर्क दे रहे हैं कि पैसे का सदुपयोग किस तरह किया जाए, इसकी आजादी परिवार को होनी चाहिए। सरकार क्यों तय करे कि उस पैसे का वे क्या करें। अगर परिवार उसका इस्तेमाल अनाज खरीदने के बजाय दवा खरीदने या बच्चों की पढ़ाई की फीस भरने के लिए करना चाहता है तो उसे इसकी स्वतंत्रता होनी चाहिए।
ऐसा तर्क वही दे सकता है जो अघाए हुए परिवार में पैदा हुआ है और यह नहीं समझता कि भोजन जीवन की सबसे मूलभूत आवश्यकता है। दवा और पढ़ाई भी आवश्यक है, पर वे भोजन का विकल्प नहीं हो सकते।
इस बात की बहुत आशंका है कि नकद पैसे का यह खेल गरीब परिवारों की मुसीबत बढ़ा देगा। बढ़ती हुई महंगाई जैसे-जैसे गरीब परिवारों की आर्थिक स्थिति और विकट करेगी, परिवार का मुखिया अपने आपको और असहाय अनुभव करेगा। यह असहायता उसे नशे और पलायन की ओर धकेलेगी। इससे सामाजिक संकट, कलह और अपराध बढ़ेंगे। इस सबका बोझ सबसे अधिक महिलाओं पर आएगा। यह नकद पैसा पूरे परिवार की जरूरतें पूरी करने के बजाय परिवार के मुखिया की अपनी इच्छाओं को पूरा करने में लगेगा।
महत्त्व की बात यह है कि सरकार ने देश के साधारण लोगों को उनके हाल पर छोड़ने का निर्णय कर लिया है। उसे चिंता केवल विदेशी निवेश की है, जो मध्यवर्ग के परिवारों से निकल रहे बच्चों के लिए सुविधाजनक नौकरियां उपलब्ध करा सके। हम देख चुके हैं कि विदेशी निवेश ऐसे क्षेत्रों में ही हो रहा है जो अर्थशास्त्र की भाषा में सेवा क्षेत्र कहे जाते हैं। वह हमारी अर्थव्यवस्था की बुनियाद मजबूत करने में नहीं लग रहा। इस निवेश को आकर्षित करने के लिए मुक्त बाजार की शर्तें लागू की जा रही हैं। अगर महंगाई बढ़ रही है तो फिलहाल सरकार में उसकी चिंता करने वाला कोई नहीं है। एक अर्थशास्त्री के लिए आंकड़े लोगों से अधिक महत्त्व रखते हैं। अगर वह प्रधानमंत्री के पद पर बैठा दिया गया है तो उसका खमियाजा देश के लोगों को ही उठाना पड़ेगा।

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/38885-2013-02-14-05-50-12


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close