प्रदूषण की राजधानी-- शशिशेखर
इस साल की शुरुआत में जब फ्रांस के राष्ट्रपति इमैन्युअल मैक्रॉन बीजिंग पहुंचे, तो साफ नीला आसमान देखकर उनके मुंह से बेसाख्ता निकल पड़ा- मैंने ऐसा खूबसूरत बीजिंग पहले कभी नहीं देखा था। मैक्रॉन सही कह रहे थे। दस साल पहले इस शहर की आबोहवा इतनी खराब थी कि सूरज सिर्फ एक धुंधले पिंड के तौर पर दिखाई पड़ता था।
याद आया, 2008 में जब मैं पहली बार बीजिंग के हवाई अड्डे पर उतरा, तो पौ फट चुकी थी, पर धूप में प्रखरता का अभाव था। बीजिंग में सूरज की यह दयनीय स्थिति, दिल्ली की मरियल धूप के अभ्यस्त हम लोगों तक का दिल दुखा गई थी। कुछ दिन पहले ही न्यूयॉर्क टाइम्स में पढ़ा था कि इस महादेश में औद्योगिक प्रदूषण की वजह से उपजा कैंसर बड़ी संख्या में लोगों के प्राण लील रहा है। वायु प्रदूषण की वजह से हर वर्ष लाखों लोग यहां अकाल मृत्यु का ग्रास बन जाते हैं और संसार के सर्वाधिक जनसंख्या वाले इस देश के महज एक फीसदी शहरी लोग स्वच्छ आबोहवा में रहते हैं। कुछ महीने बाद इस शहर में ओलंपिक खेलों का आयोजन होना था। भव्य स्टेडियम बन चुके थे, सड़कों की मरम्मत चल रही थी और सौंदर्यीकरण का काम जोरों पर था। इस सबके बावजूद यह सवाल वहां के लोगों के मन को मथ रहा था कि अच्छी आबोहवा के आदी विदेशी खिलाड़ियों को हमारा शहर कैसे पसंद आएगा? वहां प्रदूषण से लड़ने के लिए बेहद प्रभावी नीति की जरूरत महसूस हो रही थी, पर सरकार ओलंपिक की तैयारी में मसरूफ थी।
यह ठीक है कि बीजिंग की आबोहवा बेहतर हुई है, पर वहां की सरकार अपने द्वारा निर्धारित लक्ष्य से अभी भी कोसों दूर है। खुद चीन की सरकार ने भी स्वीकार किया है कि वहां के 338 में से 231 शहरों में प्रदूषण उतना नहीं घटा, जितना कि तय किया गया था। इससे जूझने के लिए तीन साल की एक और कार्य योजना बनाई गई है। सवाल उठता है कि अगर चीन प्रदूषण से जबरदस्त लड़ाई लड़ सकता है, तो भारत क्यों नहीं? हम कब तक यह रोना रोते रहेंगे कि चीन की शासन पद्धति अलग है, वहां हुक्मरां जो चाहे, कर सकते हैं, जबकि हमारे यहां लोकतंत्र है। हुकूमत को अपनी बात मनवाने के लिए अपने ही विभागों से अनापत्ति प्रमाण पत्र हासिल करने होते हैं। इसके कारण विकास संबंधी तमाम परियोजनाएं अदालती झंझटों में फंस जाती हैं। भारतीय राजनेताओं के यह खोखले तर्क प्रदूषण से होने वाली जन-धनहानि की भरपाई कैसे कर सकते हैं? ‘द लांसेट कमीशन ऑन पॉल्यूशन ऐंड हेल्थ' की रिपोर्ट बताती है कि अकेले साल 2015 में पर्यावरण प्रदूषण का कहर 25.1 लाख लोगों को अपनी क्रूरता का शिकार बना चुका है। यह जानना खौफनाक है कि प्रदूषण की वजह से दुनिया में मरने वाले अभागों में 28 फीसदी हिस्सेदारी हिन्दुस्तानियों की होती है। इन मृतकों में 75 फीसदी गरीब ग्रामीण होते हैं। भारत और किसी क्षेत्र में भले ही शीर्ष पर हो या न हो, पर इस मामले में हमने बढ़त बना रखी है।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने गुजरे हफ्ते जो आंकड़े सार्वजनिक किए, वे इस तथ्य की ताकीद करते हैं। उन्होंने 65 शहरों की आबोहवा का परीक्षण करने पर पाया कि इनमें से 60 की हालत खराब है। दिल्ली और उसके आसपास का इलाका तो गंभीर प्रदूषण की चपेट में है। यह आंकड़ा डराता है, पर आपको दूसरे बेहद डरावने तथ्य से रूबरू कराता हूं। क्या यह शर्म की बात नहीं कि इतने बड़े देश में कुल 65 शहरों में ही प्रदूषण मापने की माकूल सरकारी व्यवस्था है? अगर देश के हर शहर की हालत परखी जाए, तो यह आंकड़ा किसी को भी सिहराने के लिए पर्याप्त होगा।
कुदरत का इशारा साफ है, संभलिए, नहीं तो समाप्त हो जाइएगा। |
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