जो काम सुप्रीम कोर्ट ने किया है उसे देश के राजनीतिक दलों और राजनेताओं को बहुत पहले कर लेना चाहिए था. कोर्ट ने 9 जुलाई को पंजाब और हरियाणा की सरकारों से कहा कि अपना जल-विवाद बातचीत के जरिये सुलझायें. मैंने इस बाबत कई दफे लिखा है. पहली दफे इस सिलसिले में 2016 में लिखा था और फिर 2017 में भी कि सतलज-यमुना लिंक कैनाल से जुड़ा विवाद एक छोटा सा मसला है और इसे राजनीतिक बातचीत के जरिये सुलझाया जाना चाहिए ना कि अदालती फैसले से. विडंबना देखिए कि यही बात अब अदालत ने कही है और दोनों राज्यों के बीच विवाद को सुलझाने का एक रास्ता निकाला है.
यों ऊपरी तौर पर देखें तो सुप्रीम कोर्ट ने पिछले हफ्ते जो आदेश दिया वह तनिक बेढब जान पड़ेगा. अदालत ने यह बात तो खुले मन से स्वीकार किया कि सर्वोच्च न्यायालय ने 2002 में ही मसले पर फैसला सुनाया था. लेकिन उस फैसले पर अमल नहीं किया गया. लेकिन, 2002 के फैसले पर जल्दी से जल्दी अमल करने का आदेश सुनाने या फिर नाअमली के दोषी लोगों को दंडित करने की जगह कोर्ट ने दोनों प्रमुख पक्षों से कहा कि वे अगली सुनवाई से पहले वे मसले को आपसी सहमति से सुलझा लें. अगली सुनवाई 3 सितंबर को होनी है. कोर्ट ने साफ कहा है कि दोनों राज्यों के बीच जो भी सहमति बनती है. वह ऐसी होनी चाहिए कि राजस्थान को भी स्वीकार हो. राजस्थान इस विवाद में शामिल तीसरा राज्य है. कोर्ट ने केंद्र सरकार से भी कहा है कि जल-विवाद पर समझौते के लिए वो शीर्ष स्तर पर प्रयास करे. कानून के जानकार अदालत के इस आदेश को लेकर मीन-मेख निकाल सकते हैं, लेकिन मुझे कोर्ट का फैसला न्यायसंगत जान पड़ रहा है, क्योंकि इसमें सुलह-समझौते का रास्ता सुझाया गया है.
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