राजनीतिक एजेंडे में पर्यावरण क्यों नहीं-- नवरोज के दुबाश

Share this article Share this article
published Published on Feb 11, 2019   modified Modified on Feb 11, 2019

भारत में पर्यावरण की हालत काफी भयावह है। इससे जुड़े आंकडे़ परेशान करने वाले हैं। मसलन, देश की हर पांच में से तीन नदियां प्रदूषित हैं। ज्यादातर ठोस कचरों का निस्तारण नहीं किया जाता; यहां तक कि देश के समृद्ध हिस्सों में भी नहीं। मुंबई में 90 फीसदी, तो दिल्ली में 48 फीसदी कचरों का निस्तारण नहीं हो पाता। फिर, देश की तीन-चौथाई आबादी उन हिस्सों में बसती है, जहां वायु प्रदूषण (पीएम 2.5 का स्तर) भारत के राष्ट्रीय मानक से अधिक है। जबकि भारत का राष्ट्रीय मानक खुद वैश्विक मानक से चार गुना ज्यादा है। आलम यह है कि देश के कुल 640 जिलों में से उत्तरी हिस्से के 72 जिलों में कार्बन-उत्सर्जन वैश्विक मानक से 10 गुना ज्यादा है। हालिया वैश्विक पर्यावरण गुणवत्ता प्रदर्शन सूचकांक में भी 180 देशों की सूची में हमारा स्थान 177वां है।

यह तस्वीर बुनियादी तौर पर इंसानी स्वास्थ्य से जुड़ी है। खराब आबोहवा, दूषित जल और ठोस कचरे का उचित निपटारा न होना देश के नागरिकों, खासकर बच्चों की सेहत को प्रभावित कर रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट बताती है कि भारत में पांच वर्ष की उम्र पूरी न कर पाने वाले बदनसीब मासूमों में से 10 फीसदी की मौत की वजह वायु प्रदूषण है।

यह दुखद स्थिति दरअसल इस गलत धारणा की वजह से बनी हुई है कि पर्यावरण की गुणवत्ता विलासिता से जुड़ी है। माना जाता है कि प्रदूषण विकास का एक अनिवार्य दुष्प्रभाव है; यानी विकास होगा, तो प्रदूषण बढे़गा ही। 1972 में पर्यावरण पर हुए स्टॉकहोम सम्मेलन में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कहा था कि ‘गरीबी सबसे बड़ा प्रदूषक है'। श्रीमती गांधी के उस बयान को इस रूप में समझा गया कि गरीबी में कमी लाने के लिए पर्यावरण-संरक्षण के साथ समझौता करना पडे़गा, और भारत को गरीबी के खिलाफ अपनी लड़ाई ही आगे बढ़ानी चाहिए। मगर जैसा कि जयराम रमेश ने अपनी किताब में श्रीमती गांधी की पर्यावरण संबंधी सोच का जिक्र किया है, वह बताता है कि उनके उस बयान के गहरे निहितार्थ थे। उनका मानना था कि गरीबों की जरूरतों को कतई नजरंदाज नहीं किया जाना चाहिए, मगर उनकी जरूरतें प्रकृति को नुकसान पहुंचाए बिना पूरी की जानी चाहिए। साढे़ चार दशक गुजर चुके हैं, लेकिन भारत का विकास और पर्यावरण की तबाही, दोनों साथ-साथ तेजी से आगे बढ़ रहे हैं।

विकास के काम आज करना और पर्यावरण की चिंता भविष्य पर छोड़ देना कई कारणों से गलत नजरिया है। इसकी पहली वजह तो यही है कि प्रदूषित पर्यावरण सबसे पहले और ज्यादा गरीबों को नुकसान पहुंचाता है। किसानों, मछुआरों और वन्य जीवन पर निर्भर लोगों की आजीविका इससे तुरंत प्रभावित होती है। यही नहीं, अमीरों की तुलना में वे दूषित जल और प्रदूषित हवा की मार से खुद को बचाने में भी काफी अक्षम होते हैं, यानी प्रदूषण गरीबी के असर को और घातक बना देता है।

दूसरा कारण। यह भी संभव नहीं कि पर्यावरण को सेहत के मुफीद बनाने की कोशिशें तब तक टाल दी जाएं, जब तक कि विकास के कार्य पूरे न हो जाएं। अभी हमारा प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) चीन का महज एक-तिहाई है, मगर उसकी तुलना में हमारे ज्यादा शहर गंभीर वायु प्रदूषण की चपेट में हैं। तो क्या हम यह चाहते हैं कि चीन की जीडीपी की बराबरी करने तक भारत अधिक प्रदूषित हो जाए? कटु सच्चाई यह है कि प्रदूषण के कई दुष्प्रभाव आसानी से खत्म नहीं होते। पारिस्थितिकी तंत्र यदि एक बार बिगड़ गया, तो वह अपनी मूल स्थिति में नहीं लौट सकता।

तीसरा कारण यह है कि पर्यावरण से जुड़े सुरक्षा-उपायों को भले विकास का अवरोधक माना जाए, लेकिन दोनों का रिश्ता इससे ज्यादा जटिल है। खराब आबोहवा का अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ता है। प्रदूषण की वजह से सार्वजनिक-स्वास्थ्य पर भारी बोझ पड़ सकता है और बीमार पर्यावरण ‘पारिस्थितिकीय सेवाओं' से भी हमें वंचित कर सकता है। इससे संसाधनों का भी नुकसान होता है, जिससे गरीबों की आजीविका खत्म होती है। ज्ञान-आधारित अर्थव्यवस्था में भी हाई-स्किल्ड टैलेंट, यानी उच्च मेधाविता शायद ही जहरीले शहरी वातावरण में रहना पसंद करेगी।

और आखिरी वजह, हरियाली की ओर बढ़ना दरअसल विकास के एक ऐसे मार्ग पर चलना है, जहां सभी महासागरों, जलवायु और वनों का ख्याल रखा जाता है। आज विश्व अक्षय ऊर्जा क्रांति के दौर से गुजर रहा है। इससे जुड़े मौकों को अपने हित में भुनाने की प्रतिस्पद्र्धा सभी देशों में है। ऐसे में, ‘सर्कुलर इकोनॉमी' (इसमें किसी औद्योगिक प्रक्रिया से निकलने वाला कचरा, दूसरी प्रक्रिया के लिए इनपुट का काम करता है) हमारी दक्षता तो सुधार ही सकती है, पर्यावरण और आर्थिकी को भी पुराना रूप दे सकती है। इसका अर्थ है कि पर्यावरण को बिगाड़ने की बजाय उसे संवारने से विकास के ज्यादा मौके हासिल हो सकेंगे।

सवाल यह है कि जब विरोध के तर्क इतने मजबूत हैं, तो भारत पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले विकास की ओर तेजी से क्यों बढ़ रहा है? इसकी पहली वजह तो यह है कि हमें इसकी नाममात्र समझ है कि बेहाल पर्यावरण के आखिर क्या नुकसान हैं और स्वच्छ आबोहवा के आर्थिक व सामाजिक लाभ क्या हैं, खासतौर से गरीबों के लिए? दूसरी, स्वस्थ पर्यावरण अब भी हमारे राजनीतिक एजेंडे का हिस्सा नहीं बन सका है। इसके लिए लामबंदी यदि होती भी है, तो कुछ खास हलकों में। जैसे, प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर समुदाय, जिन्हें औद्योगिक विकास में दरकिनार किया जा रहा है और कुछ शहरी अभिजात संसाधनों के उपभोग की तुलना में स्वस्थ वातावरण को अधिक प्राथमिकता देने लगे हैं, लेकिन इनकी संख्या काफी कम है। और फिर, पर्यावरण के लिहाज से टिकाऊ विकास के लिए एक ऐसे शासन की दरकार होती है, जिसकी पर्यावरणीय नीति समझदारी से भरी है। मगर अभी तो पर्यावरण से जुड़ी हर समस्या के निदान के लिए हमें अदालती फैसले या किसी प्रशासनिक कार्रवाई का इंतजार करना पड़ता है, जबकि हमें ऐसी सोच की दरकार है, जिसमें व्यवहारगत बदलाव और तकनीकी समाधान तो हो ही, प्रभावी नियमन भी शामिल हो।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)


https://www.livehindustan.com/blog/story-opinion-hindustan-column-on-11-februaray-2401226.html


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close