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क्या हरित क्रांति भारत के गरीबों की अनदेखी पर टिकी है

हरित क्रांति बनाम बनाम मॉनसून आधारित खेती

खास बात- दिन बीतने के साथ हिन्दुस्तान के लिए कभी लगभग वरदान मान ली गई हरित क्रांति कठोर आलोचनों के घेरे में आई है। विकासपरक मुद्दों के कई चिन्तक मानते हैं कि जिन किसानों की खेत पहले से ही सिंचाई सुविधा संपन्न थे, हरित क्रांति के जरिए उन किसानों को लाभ पहुंचाने की गरज से कृषिनीति बनायी गई। इस क्रांति के बारे में बुनियादी आलोचना यह है कि देश की खेतिहर जमीन का तकरीबन 60 फीसदी हिस्सा सिंचाई के बारिश पर निर्भर है और इस हिस्से के लिए हरित क्रांति एक दम अप्रसांगिक है। मॉनसून आधारित खेती को नीतिगत स्तर पर कोई खास समर्थन हासिल नहीं है जबकि तथ्य यह है कि इसी मॉनसूनी खेती से देश के तेलहन उत्पादन का 90 फीसदी, खाद्यान्न उत्पादन का 42 फीसदी और दलहन उत्पादन का 81 फीसदी हासिल होता है।

इसमें कोई शक नहीं कि हरित क्रांति ने देश को उस वक्त खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बनाया जब एक नव-स्वतंत्र मुल्क के रुप में भारत परंपरागत खेती और तेजी से बढ़ती आबादी के पाटों के बीच पीसते हुए खाद्यान्न उत्पादन की बढोत्तरी के लिए एड़ी-चोटी एक कर रहा था।यह भारत के लिए बड़े कड़वे अनुभव और एक तरह से अपमान का वक्त था क्योंकि भारत को अमेरिका से पब्लिक लॉ 480 नामक प्रोग्राम के तहत बातचीत के बाद कुछ मदद मिली। अमेरिका ने अपने अधिशेष खाद्यान्न को स्थानीय मुद्रा में बेचने की अनुमति दी, अकाल के लिए दान भी भारत को लेना पडा।इस वक्त लगातार सूखा पड़ रहा था और भारत के सामने उस समय सबसे ज्यादा जरुरत खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बनने की ही थी। हरित क्रांति के फलस्वरुप खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बने भारत में उसी वक्त सार्वजनिक वितरण प्रणाली के विशाल तंत्र की नींव पड़ी।
 
इस तरह देखें तो हरित क्रांति ने चुनौतियों से निपटने में बड़ी भूमिका निभायी।बहरहाल इस सब के साथ एक समस्या यह आन पड़ी कि देश की कृषिनीति महज वृद्धि के मानको के बीच स्थिर रही और देश में एक बड़ा भूभाग सिंचाई की सुविधा से हीन उपेक्षित पडा रहा। इस हिसाब से देखें तो हरित क्रांति के दौर में चली कृषिनीति में उन इलाकों में आजीविका की उपेक्षा और बदहाली हुई जहां देश के तकरीबन 80 फीसदी गरीब रहते हैं।आज हम कह सकते हैं कि दशकों से भारत में नीति निर्माताओं ने हरित क्रांति के रास्ते से अलग कोई विकल्प तलाशने से हाथ खींच रखा है। यह एक तथ्य है कि भारत में मोटहन की कई किस्मे मौजूद हैं और ये फसलें कम पानी में भी भरपूर उपज देने में सक्षम हैं।इनको उपजाने में खर्चा भी कम लगता है। जरुरत इन फसलों की खेती को बढ़ावा देने और सार्वजनिक वितरण प्रणाली, मध्याह्न भोजन, और भोजन के अधिकार के जरिए लोगों तक पहुंचाने की है।

हरित क्रांति की सफलता के पीछे उन फसलों का हाथ है जो बुवाई-रोपाई के साथ ही अधिकतम खाद-पानी-कीटनाशक की मांग करते हैं। इन फसलों के कारण बहुफसली खेती की जगह एकफसली खेती ने ले ली है और भू-जल के स्तर में कमी तथा उपजाऊ मिट्टी का नाश हुआ है सो अलग।वर्षा-आधारित खेती पर केंद्रित एक राष्ट्रीय-कार्यशाला की रिपोर्ट(सितंबर, 2007) के मुताबिक एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में पर्याप्त सिंचाई करने पर 1 लाख 30 हजार रुपये का खर्चा बैठता है। इस खर्चे में उर्वरकों को दी गई सब्सिडी तथा बिजली के मद मंे राज्य सरकारों द्वारादी गई सब्सिड़ी को जोड़ दें तो पता चलेगा कि कितनी बड़ी राशि देश के सिंचित क्षेत्रों पर खर्च की जाती है। एक बात यह भी है कि इसकी ज्यादातर योजनाएं उन्हीं किसानों को फायदा पहुंचाती हैं जिनके पास बोरवेल की सुविधा है या सिंचाई के साधन हैं। इसकी तुलना में मॉनसून आधारित खेती के इलाको में किसानों को मिलने वाली सुविधा नगण्य है। इन्हीं तथ्यों के आलोक में भारत में किसानी की स्थिति पर विचार करने वाला एक तबका वर्षा-सिंचित इलाको के लिए अलग से कृषिनीति बनाने की बात कह रहा है।


देश के प्रतिष्टित कृषि-वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों की एक कार्यशाला में मॉनसून आधारित खेती के संदर्भ में निम्नलिखित बातें उभर कर सामने आईं-

 1.  मॉनसून आधारित खेती वाले इलाकों के लिए अलग से कृषि नीति बनाने की जरुरत है।
2.  भूमि की उर्वरा शक्ति को बनाए बचाए रखने के लिए तुरंत प्रयास किए जाने चाहिए।
3. खाद्य सुरक्षा के मसले पर विकेंद्रित दृष्टिकोण से सोचा जाय और ज्वार बाजरा आदि मोटहन को सार्वजनिक वितरण प्रणाली में स्थान दिया जाय।
4.  भूमि की उर्वरा शक्ति को बचाये रखने की महति जरुरत के मद्देनजर फसलों के उत्पादन में जैविक पद्धति का इस्तेमाल
5. फसलनाशी कीटों पर नियंत्रण के लिए गैर रासायनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल हो
6 .बीजों पर हकदारी कृषक समुदाय की हो
7. मॉनसून आधारित खेती वाले इलाकों में जल संसाधन का प्रबंधन विशेष नीतियों के तहत हो,
8. मॉनसून आधारित खेती के इलाके में खेती के लिए दिए जाने वाले कर्ज के ब्याज दर पर रियायत और फसल बीमा का प्रावधान हो
9. शुष्क खेतिहर इलाकों के लिए पशुपालन संबंधी नीतियां जनाभिमुखी बनायी जायें
10. निर्णय की प्रक्रिया विकेंद्रित हो

इस आलेख के नीचे हरित क्रांति बनाम मॉनसून आधारित खेती से संबंधित कई लेख और शोध अध्ययनों की लिंक दी गई है। पाठकों की सहूलियत के लिए नीचे के खंड में हम इन लिंक्स से कुछ बातें सीधे उठाकर विविध शीर्षकों के अन्तर्गत प्रस्तुत कर रहे हैं। व्यापक जानकारी के लिए आप दी गई लिंक्स की सामग्री का अध्ययन कर सकते हैं। भारत के खेतिहर संकट के विविध पहलुओं पर विशेष जानकारी के लिए आप इस वेबसाइट के ऊपर दर्ज कुछ छह शीर्षकों( खेतिहर संकट से लेकर कानून और इंसाफ तक) के भीतर जानकारियां खोज सकते हैं।

उपर्युक्त बहस पर केंद्रित कुछ मुख्य बातें निम्नवत् हैं-

हरित क्रांति बनाम मॉनसून आधारित खेती –

देश की आजादी के बाद नकदी फसलों की जगह गेंहूं चावल आदि के उत्पादन पर जोर बढ़ा और खाद्यान्न उत्पादन बढ़ गया। साल 1950 के दशक में आईएडीपी(इंटेसिव एग्रीकल्चरल डिस्ट्रिक्ट प्रोग्राम) और आईएएपी(इंटेसिव एग्रीकल्चरल एरिया प्रोग्राम) नाम से कार्यक्रम चलाये गए और परती भूमि को भी खेतिहर बनाया गया। साल 1960 के दशक में प्रौद्योगिकी प्रधान खेती की शुरुआत हुई जिसे हरित क्रांति के नाम से जाना जाता है। हरित क्रांति से खाद्यान्न का उत्पादन कई गुना ज्यादा हो गया। मॉनसून आधारित खेती के इलाकों में एग्रो-क्लामेटिक नियोजन की शुरुआत 1980 के दशक में हुई। 1990 के दशक में उदारीकरण और मुक्त बाजार की व्यवस्था अपनायी गई।

हरित क्रांति की विशेषताएं-

क.    साल 1960 के दशक में प्रौद्योगिकी प्रधान खेती की नीति अपनायी गई। इस पद्धति की खेती को हरित क्रांति का नाम दिया गया।
ख.    प्रौद्योगिकी प्रधान खेती की शुरुआत पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तरप्रदेश, आंध्रप्रदेश और गुजरात से हुई। बाद के समय में, साल 1980 के दशक से इस पद्धति की खेती का विस्तार देश के पूर्वी भागों में हुआ।
ग.    उच्च उत्पादन क्षमता वाले गेहूं के बीज (मैक्सिको से) और धान के बीज ( फिलीपिंस से) का इस्तेमाल किया जाने लगा।
घ.    उच्च उत्पादकता वाले बीजों के अतिरिक्त रासायनिक उर्वरकों का भी इस्तेमाल शुरु हुआ।
ङ.    प्रौद्योगिकी प्रधान इस खेती को सफल बनाने के लिए सिंचाई के नए साधनों का इस्तेमाल अमल में आया।
च.    यह रणनीति तात्कालिक तौर पर सफल साबित हुई और खाद्यान्न का उत्पादन कई गुना ज्यादा बढ़ गया।

हरित क्रांति के फायदे-
क.    खाद्यान्न का उत्पादन कई गुना ज्यादा बढ़ गया।

 
ख.    प्रौद्योगिकी प्रधान हरित क्रांति से खाद्य-प्रसंस्करण पर आधारित उद्योगों और कुटीर उद्योगों के विकास को भी बढ़ावा मिला।
ग.    देश खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर हो गया।
घ.    लेकिन, हरित क्रांति देश के एक सीमित इलाके में महदूद रही और खेती के विकास के मामले में क्षेत्रवार विषमता का जन्म हुआ।

हरित क्रांति के नुकसान-

क.    यह बात स्पष्ट हो चली है कि प्रौद्योगिकी और धन के अत्याधिक निवेश और इस्तेमाल की यह कृषि पद्धति टिकाऊ नहीं है।खेती की इस पद्धति ने प्रकृति की बाधाओं को पार करने के क्रम में प्रकृति के उन तत्वों का नाश किया है जो खेती के लिए जरुरी हैं। मध्यवर्ती पंजाब में आज भूजल का स्तर खतरनाक स्तर तक नीचे गिर चला है।
ख.    जिन इलाकों में हरित क्रांति हुई उनमें मॉनसून आधारित खेतिहर इलाकों की तुलना में खाद्यान्न उत्पादन कई गुना ज्यादा है लेकिन गुजरे कुछ दशकों से हरित क्रांति वाले इलाकों में उत्पादकता ठहर गई है और कहीं कहीं तो नीचे जा रही है। गुजरे दशकों की तकनीक मसलन सिंचाई का विस्तार, उर्वरकों और कीटनाशकों का ज्यादा इस्तेमाल आदि अब कारगर साबित नहीं हो रहा।बल्कि कृषि के समग्र स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव डाल रहा है।
ग.    हरित क्रांति की शुरुआत के साथ खेती से संबंधित स्थानीय ज्ञानराशि और कौशल पर दुष्प्रभाव पडा। पहले खेती की पद्धति खुदमुख्तार थी यानी उसमें टिकाऊपन था लेकिन हरित क्रांति के दौर में खेती के लिए किसान बीज, खाद,कीटनाशक और मशीन के मामले में बाहरी स्रोतों पर निर्भर होते चले गए जबकि इन चीजों का स्थानीय परिस्थिति से मेल नहीं था।किसानों की परंपरागत ज्ञानराशि धीरे धीरे छीजने लगी।
घ.    साल 1961 में इंटरनेशनल राइस इंस्टीट्यूट नामक संस्था फिलीपिन्स में फोर्ड फाऊंडेशन और राकफेलर फाऊंडेशन के सहयोग से सक्रिय हुई। इस संस्था ने उच्च उत्पादकता वाले धान के बीजों का विकास किया लेकिन हरित क्रांति के उद्भव के पीछे मानवतावादी दृष्टिकोण के साथ साथ अमेरिकी नीतियां और व्यवसायिक हित भी सक्रिय रहे।
ङ.    कई सरकारी नीति नियंता बड़े जमींदारों से राजनीतिक आधार पर जुड़े हुए थे। उनका मानना था कि हरित क्रांति हरित क्रांति बड़े किसानों वाले हलके में सफल हो सकती है। इस सोच के तहत कृषि श्रृण और अन्य सुविधाएं किसानों के उसी तबके को हासिल हुईं जो राजनीतिक रसूख के लिहाज से महत्वपूर्ण थे।

मॉनसून आधारित खेती की विशेषताएं-

क.इस खेती को सुरक्षात्मक खेती भी कहते हैं।

ख.सुरक्षात्मक खेती का उद्देश्य फसलों पर जमीन में मौजूद नमी की कम मात्रा से पड़ने वाले संभावित दुष्प्रभावों को भांपकर उनसे बचाना है।मॉनसून आधारित खेती वाले इलाकों में बारिश पानी यानी सिंचाई का अतिरिक्त स्रोत है, एकमात्र स्रोत नहीं। इस खेती में कृषि भूमि के महत्तम इलाके में नमी बनाए-बचाये रखने की जुगत लगायी जाती है।

ग.मॉनसून आधारित खेती को दो कोटियों में बांटा गया है। एक वर्ग का नाम शुष्क भूमि की खेती है और दूसरे वर्ग का नाम नमी युक्त भूमि की खेती है। जिन इलाकों में सालाना औसतन 75 सेमी से कम बारिश होती है उन इलाकों में शुष्कभूमीय खेती होती है। नमी युक्त भूमि वाली खेती में बारिश की मात्रा ज्यादा होने के कारण वर्षा के मौसम में जमीन में पर्याप्त नमी होती है।
घ शुष्कभूमीय खेती में रागी, बाजरा,मूंग,चना,ग्वार आदि उपजाये जाते हैं क्योंकि ये फसलें अत्यल्प नमी वाली स्थितियों के अनुकूल होती हैं। नमभूमीय खेती वाले इलाकों में अत्यधिक पानी की जरुरत वाली फसलें जैसे धान,पटसन और गन्ना आदि उपजाये जाते हैं।
च.शुष्कभूमीय खेती में किसान वर्षा जल संचय और भू-नमी के संरक्षण की कई विधियों का इस्तेमाल करते हैं जबकि नमभूमीय खेती में किसान जल संसाधन का इस्तेमाल मछली पालने आदि के कामों में करते हैं।

छ.शुष्कभूमीय खेती में जमीन में नमी की अत्यधिक कमी का सामना करना पड़ता है जबकि नम-भूमीय खेती में जमीन बाढ़ और अपरदन का शिकार होती है।

ज.मॉनसून आधारित खेती में उच्च उत्पादकता के बीच या फिर अत्यधिक रासायनिक खाद और कीटनाशकों के इस्तेमाल की जरुरत नहीं पड़ती क्योंकि खेती वर्षा की अनिश्चितता के जद में होती है। ऐसी परिस्थिति में निवेश प्रधान खेती घातक साबित हो सकती है।जोखिम को कम करने के लिए मॉनसून आधारित खेती में मिश्रित फसलों की उपज ली जाती है।

झ. मॉनसून आधारित खेती वाले इलाके में उच्च निवेश के साथ लगाई गई फसलें सुखाड़ के कारण नष्ट हुई हैं। देश के विभिन्न भागों से कर्ज के बोझ से दबे किसानों की आत्महत्या की खबरें आई हैं। इन आत्महत्याओं का एक कारण उच्च निवेश के साथ लगाई गई फसलों का सुखाड़ के कारण अपेक्षित ऊपज ना दे पाना भी है।



मॉनसून आधारित खेती का महत्व-

क.    परंपरगत मॉनसून आधारित खेती  जेनेटिक बेस और जैव-विविधता के लिहाज से अत्यंत समृद्ध रही है। प्रौद्योगिकी प्रधान खेती से मॉनसूनी खेती का जेनेटिक बेस और जैव विविधता खतरे में है। हरित क्रांति कुछेक उच्च उत्पादकता वाले बीजों पर आधारित है और इससे एकफसली कृषि का चलन बढ़ता है।

ख.    देश की खेतिहर जमीन का तकरीबन 60 फीसदी हिस्सा सिंचाई के बारिश पर निर्भर है। कुल ग्रामीण श्रम शक्ति का 50 फीसदी और देश का 60 फीसदी पशुधन भी शुष्कभूमीय खेती वाले इलाके से बावस्ता है। भारत में नमभूमीय खेती का इलाका देश के 177 जिलों में विस्तृत है और उनमें अझिकतर जिले देश के सर्वाधिक गरीब जिले हैं।
ग.    इसी मॉनसूनी खेती से देश के तेलहन उत्पादन का 90 फीसदी, खाद्यान्न उत्पादन का 42 फीसदी और दलहन उत्पादन का 81 फीसदी हासिल होता है।  देश में कुल मूंगफली उत्पादन का 83 फीसदी हिस्सा और सोयबीन के कुल उत्पादन का 99 फीसदी हिस्सा तथा कपास उत्पादन का 73 फीसदी हिस्सा मॉनसून आधारित खेती के इलाकों से आता है।

मॉनसून आधारित खेती के नुकसान और चुनौतियां-

क.    उर्वरकों पर दी जाने वाली रियायत, उपज पर दिया जाने वाला मूल्य समर्थन और सरकारी खरीदारी आदि सहूलियतें मॉनसून आधारित खेती वाले इलाके के किसानों तक हरित क्रांति वाले क्षेत्र के किसानों की भांति नहीं पहुंच पातीं। इस इन दो भिन्न कृषि पद्धति वाले इलाकों के बीच आर्थिक असमानता पैदा होती है। यह बात पार्थसारथि समिति की रिपोर्ट में कही गई है।

ख.मॉनसून आधारित खेती की ऐतिहासिक रुप से उपेक्षा हुई है और उसके लिए सहायक संरचनाएं भी नहीं खड़ी की गईं। इस वजह से किसानों में मॉनसून आधारित खेती के लिए उदासीनता का भाव पनपा है। मॉनसून आधारित खेती में निजी निवेश और प्राकृतिक संसाधनों की संरक्षा का मामला रसातल में गया है। यदि किसान भूसंसाधन को लेकर उदासीन हो जायें तो प्राकृतिक संसाधनों के अपक्षय को रोका नहीं जा सकता।

ग.वर्षासिंचित इलाकों में जमीन की भौगोलिक बनावट के काऱण ज्यादातर पानी सतह से बह निकलता है। यह बात उच्च वर्षा वाले क्षेत्रों में भी देखी जाती है और कम वर्षा वाले क्षेत्रों में भी।(मसलन उत्तरी कर्नाटक और उससे सटे आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र में भी जहां औसत सालाना वर्षा 300-600 मिमी होती है और पश्चिमी राजस्थान के इलाके जहां औसत सालाना वर्षा 50-425 मिमी होती है)।ज्यादातर पानी के बह निकलने के कारण इन इलाकों में वर्षाविहीन महीनों में पानी की अत्यधिक कमी हो जाती है।

घ. वर्षाजल के संरक्षण और संग्रहण से मॉनसून आधारित खेती वाले इलाकों का विकास किया जा सकता है। फिलहाल चैकडैम बनाने की प्रणाली प्रचलित है। इससे संख्या में बहुत कम और अपेक्षाकृत समृद्ध किसानों को फायदा होता है। सिंचाई के पानी का वितरण समान रुप से सभी कृषि भूमि के लिए हो इसके लिए नई पहल की जरुरत है।

च. मॉनसून आधारित खेती के इलाके में आर्थिक और पर्यावरणीय संकट का एक बड़ा कारण कीट और कीटनाशक हैं। उससे फसल मारी जाती है और किसान के जीवन-परिवेश पर दुष्प्रभाव पड़ता है। मॉनसून आधारित खेती के इलाकों में समेकित रुप से प्राकृतिक संसाधनों की संरक्षा की नीति लागू करने की जरुरत है।ब्राजील और कनाडा में ऐसी पहल हो चुकी है।

छ. उड़ीसा, बिहार और पश्चिम बंगाल में मेंड़ों की व्यव्सथा ठीक ना हो पाने के कारण पानी खेतों में बर्बाद होता है। अगर मेंड की ऊँचाई एक फीट की हो तो पूर्वीं राज्यों में खेतों को हासिल पानी का 80 फीसदी बचाया जा सकता है। इससे भू-अपरदन और बाढ़ की समस्या से निपटने में मदद मिलेगी।

ज. भारत में शोध संस्थानों की तरफ से शुष्कभूमीय खेती के अनुकूल कई प्रौद्योगिकी का विकास किया गया है। इस प्रौद्योगिकी पर कारअमली के लिए शुरुआती पूंजीगत निवेश की आवश्यकता है। दूसरे, कुछ परेशानियां स्वयं शोधों की भी है। चूंकि ज्यादातर शोध जमीनी वास्तविकताओं को समग्रता में ध्यान में रखकर नहीं होते इसलिए शुष्कभूमीय खेती करने वाले किसान उन्हें अपनी आवश्यकता के अनुकूल नहीं अपना पाते।

झ शुष्कभूमीय खेती के इलाके की बसाहट में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की आबादी अपेक्षाकृत अधिक है। अभावगत जीवनपरिस्थितियों के कारण यह समुदाय अत्याधुनिक तकनीकों के इस्तेमाल से अपने को दूर पाता है। ग्रामीण क्षेत्र में बुनियादी सुविधाओं की कमी, निरक्षरता, कुपोषण और गरीबी आदि कई कारक इस वर्ग को प्रौद्योगिकीपरक खेती से दूर करने में अपने तईं भूमिका निभाते हैं।

ट. वर्षा आधारित खेती के इलाकों में कृषक आत्महत्याओं का सिलसिला चल पडा है। इससे जाहिर हो गया है कि हरित क्रांति बाजार की ताकतों और पानी के अत्यधिक इस्तेमाल पर टिकी है जिसका शुष्कभूमीय खेती की जरुरतों से काई तालमेल नहीं है।

(इस विषय पर विस्तृत जानकारी नीचे दी गई लिंक्स में मिल जाएगी)

Managing water in rainfed agriculture, Johan Rockstrom, Nuhu Hatibu Theib Y Oweis and Suhas Wani,
http://www.iwmi.cgiar.org/assessment/Water%20for%20Food%20Water%20for%20Life/Chapters/Chapter%208%20Rainfed.pdf

Rainfed Areas of India, Centre for Science and Environment,
http://www.cseindia.org/programme/nrml/e-pov-july07.htm

A watershed approach to upgrade rainfed agriculture in water scarce regions through Water System Innovations: an integrated research initiative on water for food and rural livelihoods in balance with ecosystem functions by J. Rockstro¨m, C. Folke, L. Gordon, N. Hatibu, G. Jewitt, F. Penning de Vries, F. Rwehumbiza, H. Sally, H. Savenije and R. Schulze, Physics and Chemistry of the Earth 29 (2004) 1109–1118,
http://www.unesco-ihe.org/index.php//content/download/2828/29631/file/01WSI_sdarticleSSI.pdf.

Report of the Working Group on Watershed Development, Rainfed Farming and Natural Resource Management for the Tenth Five Year Plan, Planning Commission, September 2001,
http://planningcommission.gov.in/aboutus/committee/wrkgrp/wgwtrshd.pdf

Strategic Assessments and Development Pathways for Agriculture in the Semi-Arid Tropics: How can rainfall insurance help dryland farmers? by KPC Rao, Xavier Gine, Donald Larson, MCS Bantilan and D Kumara Charyulu, Policy Brief No. 7, July, 2006,
http://www.icrisat.org/gt-mpi/PolicyBriefs/Pb7.pdf

Rainfed farming and successful alternatives: A case study of NPM in Andhra Pradesh – by G. Chandra Sekhar, Centre for Sustainable Agriculture,
www.smartfarming.org/documents/intlsemoct08/npm_chandra.doc

Strategy for Increasing Productivity Growth in Agriculture by Dr. RS Paroda, http://www.apcoab.org/documents/strategypaper_rsp.pdf

Report of Sub-Committee on More crop and income per drop of water, Ministry of Water Resources, October 2006,
http://cwc.gov.in/main/webpages/3.doc

Integrating Four Capitals and Four Waters to Secure the livelihood of Dry land Farmers by T.N. Balasubramanian and A. Nambi, SDC Project on Vulnerability assessment and enhancing adaptive capacity to climate change, 3rd Cross street, Taramani Institutional area, Chennai – 113,
http://www.worldcolleges.info/articledownload/35article-2-08-07.doc
 
Chapter 5: Land Resources and Agriculture by Suryaveer Singh (2008),
http://exploringgeography.wikispaces.com/file/view/Chapter-5+New+2008.pdf

The Role of Rainfed Agriculture in the Future of Global Food Production by Mark W. Rosegrant, Ximing Cai, Sarah Cline and Naoko Nakagawa, German Development Institute (GDI) and International Food Policy Research Institute (IFPRI), Bonn, October 2001,
http://www.water-2001.de/supporting/Role_of_Rainfed_Agriculture.pdf

Researching the drylands by Rajeswari S. Raina,
http://www.cprindia.org/papersupload/1215238542-Raina_Drylands.pdf

Sustainable Development of Indian Agriculture: Green Revolution Revisited by Anil K Gupta, W.P. No. 896, September 1990, Indian Institute Of Management, Ahmedabad, http://www.sristi.org/CONF.PAPERS%201979-2003/SUSTAINABLE%20DEV.INDIAN%20AGRI.doc

Lessons from the Green Revolution: Effects on Human Nutrition by Rachel Bezner Kerr, IDRC, http://www.idrc.ca/uploads/user-S/11212685201Green_Revolution_&_Nutrition_paper_-_for_Ecohealth_training.doc
 

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