वनाधिकार कानून-- दिन भर चले अढ़ाई कोस!
आदिवासी समुदाय को जमीन पर हकदारी देने वाले वनाधिकार कानून पर अमल का अंदाजा इस तथ्य से लगाइए कि इस साल के जून महीने के आखिर तक राष्ट्रीय स्तर पर वनपट्टों पर दावेदारी के तकरीबन 50 फीसद मामले खारिज किए गए हैं. खारिज किए गए ये मामले कुल 19 राज्यों के हैं.
जनजातीय कार्य मंत्रालय द्वारा वनाधिकार कानून के क्रियान्यवयन से संबंधित जारी नये आंकड़ों से इस तथ्य का खुलासा होता है.
मंत्रालय के आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि इस साल के 30 जून तक वनभूमि के पट्टों पर व्यक्ति-स्तर के मालिकाने के 40.72 लाख दावे आये जबकि सामुदायिक स्तर के ऐसे 1.1 लाख दावे किए गए.
व्यक्ति-स्तर पर प्राप्त दावों में कुल 16,35,469 मामलों में ही भूमिपट्टों का आबंटन किया गया जबकि सामुदायिक स्तर पर भूमिपट्टों के आबंटन के मामलों की संख्या 44,451 रही.
वनभूमि पर दावेदारी के कुल 41,82,643 मामलों में 19,73,143 मामले खारिज कर दिए गए हैं.
(विभिन्न राज्यों में वनभूमि के पट्टों के दावों से संबंधित सारणि के लिए कृपया यहां क्लिक करें)
वनभूमि के पट्टों के मालिकाने के सबसे कम दावे उत्तराखंड से संबंधित हैं. यहां व्यक्ति स्तर पर वनपट्टों पर मालिकाने के केवल 182 दावे किए गए हैं. इसके बाद हिमाचलप्रदेश और बिहार का नंबर है जहां से क्रमशः 5409 और 8022 मामले वनपट्टों पर दावेदारी के हैं.
वनपट्टों पर दावेदारी के सर्वाधिक मामले छत्तीसगढ़ के हैं. यहां व्यक्तिगत और सामुदायिक स्तर के कुल 8,60,364 दावे किए गए जिसमें 5,07,907 मामले खारिजी के शिकार हुए.
वनभूमि के पट्टों पर मालिकाने के दावे की संख्या के मामले में ओड़ीशा(6,26,097 दूसरे और मध्यप्रदेश(6,12,676) तीसरे नंबर पर है. ओड़ीशा में खारिज मामलों की संख्या 1,55,881 रही तो मध्यप्रदेश में 3,76,501.
वनाधिकार कानून के क्रियान्वयन से संबंधित अगस्त महीने की रिपोर्ट से पता चलता है कि 17 बड़े राज्यों में तकरीबन 1.02 एकड़ भूमि के पट्टों पर दावेदारों को मालिकाना दिया गया है. इसमें 56.6 लाख एकड़ भूमि-पट्टों पर मालिकाना व्यक्तियों को हासिल हुआ है जबकि 45.5 लाख एकड़ भूमिपट्टों पर सामुदायिक मालिकाना दिया गया है.
गौरतलब है वनाधिकार कानून के अंतर्गत आदिवासी समाज व्यक्तिगत अथवा सामुदायिक स्तर पर वनक्षेत्र और इसके आस-पास के इलाके के भूस्वामित्व का दावा कर सकता है. यह दावा पहले ग्रामसभा में किया जाता है. ग्रामसभा इसके आधार पर अनुमंडलीय समिति को अनुशंसा करती है कि दावेदारी वाली जमीन पर कौन किस समय से खेती-बाड़ी का काम करता आ रहा है और इस जमीन से किस तरह के लघुवनोपज एकत्र किए जाते हैं. अनुमंडलीय समिति दावे को जिलास्तरीय समिति के पास अंतिम स्वीकृति के लिए भेजती है.
वनाधिकार कानून और कंपेनसेटरी एफ़ॉरेस्टेशन फंड वनाधिकार कानून के हिसाब से ग्राम सभा को यह फैसला करने का अधिकार है कि कोई परियोजना वनभूमि में चलायी जा सकती है या नहीं अथवा सरकार वन-संरक्षण की कोई योजना वनक्षेत्र में जारी रख सकती है या नहीं.
विशेषज्ञों के अनुसार अपने मौजूदा रुप में कंपेनसेटरी एफ़ॉरेस्टेशन फंड(सीएएफ) बिल ग्रामसभा के इस अधिकार के विपरीत होने के कारण वनाधिकार कानून का एक तरह से उल्लंघन है.
वन-विभाग की नौकरशाही द्वारा वनीकरण के पूर्व में किए गए प्रयास वनाच्छादन को बढ़ाने में असफल सिद्ध हुए हैं. नागरिक संगठन के कार्यकर्ता मांग करते रहे हैं कि वनों के पुनर्स्थापन तथा अपक्षरित भूमि की सेहत की बहाली का काम स्थानीय समुदाय के सहयोग से होना चाहिए. उनका तर्क है कि सीएएफ के फंड का उपयोग वन-विभाग की नौकरशाही की अपेक्षा समुदाय आधारित वनीकरण के प्रयासों में कहीं ज्यादा बेहतर ढंग से हो सकेगा.
वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार सीएएफ बिल के प्रावधानों के मुताबिक जमा राशि का 90 फीसद हिस्सा राज्यों को दिया जाना है ताकि राज्य वनभूमि के गैरवनीय इस्तेमाल से हुए नुकसान की भरपाई के लिए वनीकरण, वन-संरक्षण और संवर्धन के काम कर सकें. कंपेनसेटरी एफॉरेस्टेशन फंड की जमा कुल 40 हजार करोड़ की राशि अबतक बैंकों से 2 हजार करोड़ का ब्याज भी कमा चुकी है.
इस फंड की शेष 10 प्रतिशत राशि राष्ट्रीय स्तर पर रखी जानी है ताकि उसके सहारे भरपाई के तौर पर किए जाने वाले वनीकरण के कामों की निगरानी और मूल्यांकन का काम हो. इस राशि से राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को तकनीकी सहायता भी दी जानी है ताकि वे वनीकरण के लिए हासिल राशि का बेहतर इस्तेमाल कर सकें.
इस कथा के विस्तार के लिए कृपया निम्नलिखित लिंक चटकायें---
Monthly update on status of
implementation of the Scheduled Tribes and Other Traditional Forest Dweller
(Recognition of Forest Rights) Act, 2006, Ministry of Tribal Affairs, 10
August, 2016, please click here to access
The Scheduled Tribes and Other
Traditional Forest Dwellers (Recognition of Forest Rights) Act (2006), please click here to access
(पोस्ट में इस्तेमाल की गई तस्वीर साभार शंभु घटक)
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