भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन: 100 साल के सफ़र के पाँच पड़ावों ने बदला इतिहास


-बीबीसी, भारत में ही नहीं यूरोप या किसी अन्य महाद्वीप में आज कम्युनिस्ट आंदोलन बहुत मजबूत नहीं रह गया है. लेकिन इस दौरान इस विचारधारा की राजनीति भारत में अपने 100 साल पूरे कर लिए हैं. अब तक के इस सफ़र के पांच सबसे अहम पड़ाव और भारतीय राजनीति में उनके मायनों पर एक नज़र: 1. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की ताशकंद में स्थापना-कांग्रेस के साथ रिश्ते पार्टी की स्थापना सोवियत संघ में बोल्शेविक क्रांति की सफलता और दुनिया भर के देशों के बीच आपसी राजनीतिक और आर्थिक संबंध बनाने के ज़ोर वाले दौर में हुई थी. पार्टी की स्थापना में मानवेंद्र नाथ रॉय ने अहम भूमिका निभाई थी. एमएन रॉय, उनकी पार्टनर इवलिन ट्रेंट राय, अबानी मुखर्जी, रोजा फिटिंगॉफ, मोहम्मद अली, मोहम्मद शफ़ीक़, एमपीबीटी आचार्य ने सोवियत संघ के ताशकंद में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के गठन की घोषणा की थी. इनमें एमएन रॉय अमरीकी कम्युनिस्ट थे जबकि अबानी मुखर्जी की पार्टनर रोजा फिटिंगॉफ रूसी कम्युनिस्ट थीं. मोहम्मद अली और मोहम्मद शफ़ीक़ तुर्की में ख़िलाफ़त शासन को लागू करने के लिए भारत में चल रहे ख़िलाफ़त आंदोलन के पक्ष में समर्थन जुटाने के लिए रूस में थे. ये वो समय था जब गाँधी भी ख़िलाफ़त आंदोलन का समर्थन कर रहे थे. उस वक्त में ख़िलाफ़त आंदोलन के कई कार्यकर्ता भारत की यात्रा कर रहे थे. कुछ तो पैदल ही सिल्क रूट के रास्ते भारत आ रहे थे. ये लोग तुर्की में ब्रिटिश उपनिवेश का विरोध कर रहे थे. यह दौर एक तरह से भूमंडलीय दौर था क्योंकि ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी ने अपनी सरकार का विरोध करते हुए भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को समर्थन देने का फ़ैसला लिया था.
देश भर में ब्रिटिश उपनिवेश के ख़िलाफ़ संघर्ष कर रहे विभिन्न समूह इस पार्टी की तरफ़ आकर्षित हुए. महत्वपूर्ण यह है कि अमरीका से चल रही गदर पार्टी के सदस्यों पर इसका काफी असर देखने को मिला. इसी वक्त में ख़िलाफ़त आंदोलन में हिस्सा ले रहे युवा बड़ी संख्या में कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ गए. इन सबके अलावा एमएन रॉय देश भर में विभिन्न समूहों को पार्टी से जोड़ने के काम में लग गए. हालाँकि पार्टी के कोई ठोस कार्यकारी योजना नहीं थीं. कम्युनिस्टों ने उस वक्त भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की नीतियों के साथ काम करने, उनका आंतरिक हिस्सा होने और दिलचस्पी लेने वाले लोगों को साथ लेने का काम किया. उन्होंने मुख्य तौर पर शहरी इलाक़े के अद्यौगिक क्षेत्रों में काम किया. मद्रास के कम्युनिस्ट नेता सिंगारावेल चेट्टियार उस वक्त सुर्खियों में आ गए थे जब उन्होंने 1922 में गया में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सम्मेलन के दौरान संपूर्ण स्वराज की घोषणा की थी. कम्युनिस्ट आंदोलन कम्युनिस्टों पर षड्यंत्र करने के मामले अंग्रेजों के जमाने में लगे थे. पेशावर, कानपुर और मेरठ षड्यंत्र मामले इनमें प्रमुख थे. पूरे शीर्ष नेतृत्व को कानपुर षड्यमंत्र मामले में फँसाया गया था. हर कोई यह समझ गया था कि ब्रिटिश सरकार एमएन रॉय और हर भारतीय कम्युनिस्ट के बीच होने वाले पत्राचार पर नजर रख रही थी. इन पत्राचारों पर नज़र रखने के साथ ही षड्यंत्र के मामलों की शुरुआत हुई थी. एक तरह से हम कह सकते हैं कि ब्रिटिश शासन के बाद भारतीय सरकारों को ना केवल ब्रिटिश क़ानून बल्कि उनके नज़र रखने के तरीके विरासत में मिले थे. कानपुर में बैठक और पार्टी का गठन इस बैठक में तय किया गया कि ताशकंद में बनी पार्टी संचालन में आने वाली मुश्किलों को दूर करने के लिए कम्युनिस्टों को अखिल भारतीय स्तर पर एकजुट करने की ज़रूरत है. इसलिए एक बार फिर से कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया के गठन की घोषणा की गई. इस बैठक के आयोजन में सत्यभक्त की अहम भूमिका रही थी. उन्होंने अपील की थी कि पार्टी का नाम इंडियन कम्युनिस्ट पार्टी रखा जाए लेकिन पार्टी के दूसरे नेताओं ने कवेंशन ऑफ़ इंटरनेशनल कम्युनिस्ट मूवमेंट का हवाला देते हुए कहा कि देश का नाम अंत में रखा जाएगा. सिंगारावेल चेट्टियार को पार्टी का अध्यक्ष और सच्चिदानंद विष्णु घाटे को सचिव चुना गया. कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया के गठन के साल को लेकर विभिन्न मतों वाले लोगों में मतभेद है. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और विभिन्न मार्क्सवादी-लेनिनवादी दल ताशकंद में बनी पार्टी को भारत की पहली कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में मान्यता देते हैं, लेकिन मौजूदा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) 1925 में बनी पार्टी को भारत की पहली कम्युनिस्ट पार्टी मानते हैं. यह मतभेद की स्थिति आज तक बनी हुई है. श्रमिकों और किसानों की पार्टी चिट्गांव में स्थानीय कम्युनिस्टों के संघर्ष को इतिहास में जगह मिली. नयी पीढ़ी के नेताओं में पुछलपल्ली सुंदरैया (हैदर ख़ान के शिष्य), चंद्र राजेश्वर राव, ईएमएस नंबुदिरापाद, एके गोपालन, बीटी रणदीवे जैसों ने उभरना शुरू किया. मेरठ षड्यंत्र मामले में रिहा होने के बाद नेताओं ने कलकत्ता में 1934 में बैठक की और देश भर में आंदोलन को बढ़ाने के लिए संगठन को मज़बूत करने पर बल दिया. ब्रिटिश सरकार ने इन सबको देखते हुए 1934 में पार्टी पर पाबंदी लगा दी. इसी साल जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ी कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का सोशलिस्ट विंग के तौर पर गठन हुआ. लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि देश के दक्षिण हिस्से में कम्युनिस्टों का नियंत्रण था. इन लोगों ने कांग्रेस की पार्टी के साथ समाजवादी आंदोलन को बढ़ाने की रणनीति चुनी. वो कांग्रेस के साथ काम करने के अलावा कांग्रेस पार्टी के भीतर भी अपनी विचारधार को बढ़ाने की रणनीति को अपनाते थे. लेकिन जयप्रकाश नारायण और उनके साथी कम्युनिस्टों के प्रति अच्छी राय नहीं रखते थे और उन्होंने रामगढ़ में 1940 में आयोजित कांग्रेस बैठक में कम्युनिस्टों को बाहर का दरवाजा दिखा दिया. समाजवादियों की अपनी यात्रा में आज तक एक दूसरे प्रति आपसी अविश्वास की झलक मिलती है. यही बात कांग्रेसा के लिए भी कही जा सकती है. कम्युनिस्टों के साथ कांग्रेस के रिश्तों को मापने के लिए कोई इस उदाहरण को देख सकता है- ऑल इंडिया स्टुडेंट्स फेडरेशन (एआईएसएफ) का गठन 1936 में पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा किया गया था. हालाँकि आने वाले वर्षों में उनके संबंधों में खटास आ गई थी. इसी दौर में न केवल छात्र संगठन की स्थापना हुई बल्कि महिला यूनियन, रैडिकल यूथ यूनियन और अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ का गठन भी हुआ. 1943 में ही इंडियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) का गठन किया गया. इस नाट्य समूह से मुल्कराज आनंद, कैफी आज़मी, पृथ्वीराज कपूर, बलराज साहनी, ऋत्वक घटक, उत्पल दत्त, सलिल चौधरी जैसी साहित्यिक और सांस्कृतिक हस्तिया जुड़ी हुई थीं. इन सबका सिनेमा के शुरुआती दौर में बहुत प्रभाव था. वहीं दूसरी ओर, सुंदरैया, चंद्रा राजेश्वरा राव और नंबूदरीपाद जैसे नेताओं के नेतृत्व में सामाजिक आर्थिक आंदोलन को आगे बढ़ाया गया. सुंदरैया और नंबूदरीपाद पर गांधी का असर था और यह उनकी जीवनशैली और कामकाजी शैली से भी जाहिर होता है. पूरा लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. |
जीएस राममोहन, https://www.bbc.com/hindi/india-54673843
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