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भारत की प्रशासनिक सेवाओं में महिलाएं इतनी कम क्यों?

-इंडियास्पेंड,

साल 1951 में पहली बार जब भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) में महिलाओं को शामिल करने का फैसला लिया गया तो एक महिला थी, लगभग सात दशक बाद 2020 में महिलाओं की संख्या कुल आईएएस अधिकारियों का सिर्फ 13% है।

अशोका यूनिवर्सिटी में त्रिवेदी सेंटर फॉर पॉलिटिकल डेटा (टीसीपीडी) द्वारा संकलित भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी डेटासेट (Indian Administrative Service Officers Dataset) को लेकर किए गए विश्लेषण में इंडियास्पेंड ने पाया कि 1951 से 2020 के बीच सिविल सेवाओं में प्रवेश करने वाले 11,569 आईएएस अधिकारियों में महिलाओं की संख्या महज 1,527 रही।

सिविल सेवा में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए भारत ने लंबा सफर तय किया है। आईएएस परीक्षा उत्तीर्ण करने वाली देश की पहली महिला अन्ना राजम जॉर्ज जब इंटरव्यू देने पहुंची थीं तो इंटरव्यू बोर्ड के सदस्यों ने उन्हें हतोत्साहित करते हुए उनसे विदेशी या केंद्रीय सेवाओं पर विचार करने के लिए कहा था। यहां यह भी जानना जरूरी है कि जॉर्ज का नियुक्ति पत्र इस शर्त के साथ आया था कि "शादी की स्थिति में आपकी सेवा समाप्त कर दी जाएगी"।

ये अलग बात है कि बाद में नियमों को बदला गया और वह शादी के बाद भी सेवा में बनी रहीं, लेकिन प्रगति बेहद धीमी रही। 1970 की बात करें तो तब आईएएस में महिलाओं की हिस्सेदारी 9% थीं; यह अनुपात 2020 तक बढ़कर 31% तक पहुंचा। राष्ट्रीय सूचना विज्ञान केंद्र के आंकड़ों की मानें तो वर्तमान में 21 प्रतिशत सेवारत आईएएस अधिकारी महिलाएं हैं। टीसीपीडी-आईएएस डेटासेट 1951 से 1970 तक के दो दशकों के लिए पर्याप्त नहीं है, लिहाजा विश्लेषण के लिए 1970 से 2020 के बीच की समयावधि के आंकड़ों का उपयोग किया जाता है।

2021 में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) के तहत लोक प्रशासन में लैंगिक समानता को लेकर रिपोर्ट तैयार की गई। इसमें कहा गया- ''लैंगिक समानता एक समावेशी और जवाबदेह लोक प्रशासन के मूल में है।" रिपोर्ट बताती है कि नौकरशाही और लोक प्रशासन में महिलाओं का समान प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने से सरकार के कामकाज में सुधार होता है, सेवाओं को विविध सार्वजनिक हितों के प्रति अधिक उत्तरदायी और जवाबदेह बनाता है। इसके साथ ही प्रदत्त सेवाओं की गुणवत्ता में इजाफा करता है। इसके अलावा लोक संगठनों के बीच आपसी भरोसा और विश्वास भी बढ़ता है।

मार्च 2020 में सरकार ने संसद में बयान दिया था- 'वो ऐसा कार्यबल बनाने की कोशिश में है जो लैंगिक संतुलन को प्रतिबिंबित करता हो' लेकिन इंडियास्पेंड ने अपनी खोज में पाया कि जमीनी हकीकत इससे कोसों दूर है।

हम लोग कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग, केन्द्रीय राज्यमंत्री जितेन्द्र सिंह और मीडिया और संचार विभाग तक पहुंचे हैं. जैसे ही इनकी प्रतिक्रिया मिलेगी हम स्टोरी अपडेट कर देंगे.

बहुत कम महिलाएं देती हैं IAS की परीक्षा

आईएएस बनने के लिए ये भर्ती प्रक्रिया यानी लोक सेवा परीक्षा (CSE) में हर वर्ष लाखों परीक्षार्थी बैठते हैं, लेकिन इनमें से कुछ हजार ही सफल हो पाते हैं। इनमें से भी ज्यादा तादाद पुरुषों की होती है। यूपीएससी यानी केन्द्रीय लोक सेवा आयोग ने 2010 से 2018 के बीच का एक आंकड़ा जारी किया है। इसके मुताबिक केवल 2017 में कुल आवेदकों में से 30% महिला परीक्षार्थी सीएसई यानी लोक सेवा परीक्षा में बैठी थीं।

CSE अर्हता की बात करें तो, परीक्षार्थी को कम से कम 21 साल का होना चाहिए और स्नातक की डिग्री होनी चाहिए। इसमें तीन चरण होते हैं- प्रारंभिक परीक्षा, मुख्य परीक्षा और साक्षात्कार। अंतिम भर्ती सूची में वो प्रतियोगी जगह बनाने में कामयाब होते हैं जिनके आखिरी दो चरणों में संयुक्त अंक बेहतरीन होते हैं। अभ्यर्थी 32 साल की उम्र तक कुल 6 बार ये परीक्षायें दे सकता है। हालांकि सरकार निचले तबके के लोगों और शारीरिक रूप से कमजोर अभ्यर्थियों को आयु सीमा में कुछ छूट भी देती है। महिलाओं के लिए प्रारंभिक परीक्षा में 100 रुपए और मुख्य परीक्षा के लिए 200 रुपये माफ किए गए हैं।

आईएएस अधिकारी बनने के लिए लम्बी दूरी तय करनी पड़ती है इसलिए इच्छुक उम्मीदवारों को अपने Twenties (उम्र के दूसरे दशक) में परीक्षाओं के अनुकूल खुद को ढालना शुरू कर देना चाहिए और ऐसा करते हुए अगर वो एकाध बार असफल भी रहते हैं तो तीसरे दशक तक खींच सकती हैं। उनके पास प्रारंभिक वर्षों में बैठने का विकल्प होगा।

वर्तमान में केन्द्र शासित प्रदेशों के विधायी मामलों (एजीएमसूटी कैडर) वाले कैडर में बतौर उपायुक्त तैनात और 2015 बैच की अधिकारी इरा सिंघल कहती हैं- सीएसई बहुत ही जोखिम भरी परीक्षा है, जिसमें कई बार अनेक प्रयास की जरूरत पड़ती है। ऐसे में कई परिवार अपनी बेटियों की मदद के लिए तैयार नहीं होते। सोचते हैं अगर लड़की सफल नहीं हुई तो तैयारियों में गंवाए गए सालों को लेकर वो भावी दूल्हे को आखिर क्या बताएंगे?

सीएसई तैयारियों के हब के तौर पर पहचाने जाने वाले करोल बाग के एक कोचिंग सेन्टर में काउंसलर प्रिया रॉय (परिवर्तित नाम) इंडियास्पेंड को बताती हैं- आप पास के क्षेत्र में घूम आइए और 30 साल से ऊपर की उन लड़कियों को तलाशिए जो परीक्षा की तैयारी कर रही हैं और उनकी तुलना आप तैयारी कर रहे 30 प्लस के अविवाहित पुरुषों से करिए।

दिल्ली के करोलबाग में ही स्थित एक कोचिंग सेंटर के शिक्षक पंकज दि्वेदी इसका एक और कारण बताते हैं। उनके मुताबिक एक अहम कारण फासला भी है। परिवार पढ़ाई के लिए अपने घरों से दूर, बड़े शहरों में बेटियों को नहीं भेजना चाहते है। हमने पाया है कि ऑनलाइन कोचिंग के लिए अपेक्षाकृत ज्यादा संख्या में महिलाओं ने साइन अप किया है, ये तादाद अपने आप में बहुत कुछ बताती है।

AGMUT cadre की आंचल चौधरी (परिवर्तित नाम) कहती हैं- परीक्षा देने के लिए स्नातक होना जरूरी है, फिर आपके लिए इसका सपना देखना भी जरूरी है और आपके पास वित्तीय संसाधन भी पर्याप्त होने चाहिए ताकि आप अनौपचारिक शिक्षा ले सकें या फिर एक या दो साल का अंतराल (गैप ईयर्स) ले सकें। इन तथ्यों में आप ये भी जोड़ लें कि लड़की का परिवार बेटी की शिक्षा में कम रकम खर्च करना चाहता है।

TCPD-IAS का विश्लेषण बताता है कि तकरीबन आधी (53%) महिलाएं 26 साल की उम्र तक आते- आते आईएएस बनीं। वहीं, इनके मुकाबले पुरुषों की उम्र 33 रही। (यहां ये बताना जरूरी है कि सीएसई में ज्यादातर अफसरों की भर्ती डायरेक्ट होती है, लेकिन कुछ राज्य लोक सेवा से, कुछ विशिष्ट या आपातकालीन भर्ती प्रक्रिया से प्रमोट होकर भी यहां पहुंचते हैं। ऐसे अभ्यर्थियों पर 32 साल की सीमा लागू नहीं होती।)

ये रेखांकित करता है कि आईएएस बनने के लिए पुरुषों के मुकाबले महिलाएं कम प्रयास करती हैं। यूपीएससी की एक ताजा रिपोर्ट (2019-20) में प्रकाशित आंकड़ों की मानें तो 2018 में 61% लड़कियां पहली बार परीक्षा देने बैठी थीं, 19% दूसरी बार जबकि महज 5% पांचवी (या उससे अधिक) बार परीक्षा दे रही थीं। इनकी तुलना में करीब 10% पुरुष पांचवी (या उससे अधिक) दफा परीक्षा दे रहे थे। ये आंकड़ा इस बात को रेखांकित करता है कि कैसे परिवार अपनी बेटियों को ट्वेन्टिस में तैयारी कराते रहने और लगातार प्रयासरत रहने के प्रति उदासीन रहता है।

आईएएस की तैयारी में लैंगिक असमानता का अनुभव

कोचिंग संस्थानों में करायी जा रही तैयारियों पर भी लैंगिक असमानता का साया रहता है. प्रिया रॉय कहती हैं- मैंने देखा है कि लड़कियां फैकल्टी से सहयोग लेने में हिचकिचाती हैं। उनमें से अधिकतर या तो युवा या फिर अधेड़ पुरुष होते हैं। लड़कियां इनसे कक्षा के बाहर अनौपचारिक तौर पर सम्पर्क करने से बचती हैं, एक तो अपनी सुरक्षा को लेकर ये आशंकित होती हैं और दूसरा सोचती हैं कि अगर उन्होंने पुरुष शिक्षक से कोई मदद क्लास के बाहर चाही तो इसे गलत नजरिए से देखा जाएगा। रॉय इंगित करती हैं कि इस तरह की मानसिक बाधाएं पुरुष उम्मीदवारों में नहीं होती।

महिलाओं के लिए अपरोक्ष चुनौती

इंडियास्पेंड ने कुछ ऐसी महिला अधिकारियों से बात की जिन्होंने बताया कि चूंकि एक आईएएस अफसर के पास शक्तियां तमाम होती हैं सो लैंगिक भेदभाव की गुंजाइश बेहद कम होती है, लेकिन महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रह जो अरसे से चली आ रही हैं, दूर नहीं होते।

अवकाश प्राप्त आईएएस अधिकारी और 10 विशिष्ट आईएएस महिलाओं पर किताब लिखने वाली रजनी सेखरी सिब्बल कहती हैं- शादीशुदा महिलाओं को आईएएस बनने देने से रोकने वाला नियम खत्म कर दिया गया है, लेकिन कुछ सेवाओं (जैसे पुलिस सेवा) को लेकर सोच अब भी वही है कि ये नौकरी महिलाओं के लिए नहीं है।

सिब्बल कहती हैं, यहां तक कि आईएएस सेवा में भी ऐसा सोचा जाता है कि ये तबादला महिला के लिए सही नहीं है। इसके लिए सिब्बल अपने हरियाणा कैडर का उदाहरण देती हैं। वो कहती हैं, 1966 में राज्य घोषित होने के तीन दशक बाद भी यहां किसी महिला की तैनाती बतौर उपायुक्त नहीं हुई थी। यहां साफतौर पर पूर्वाग्रह था- उस पद पर स्थापित न करने का तर्क दिया गया कि आखिर वो अपना कर्तव्य कैसे निभा पायेंगी? सिब्बल जिनकी प्रशासनिक सेवा में नियुक्ति 1986 में हुई थी, कहती हैं- हरियाणा में किसी महिला को उपायुक्त पद पर नियुक्ति 1991 में पहली बार मिली।

AGMUT cadre की आंचल चौधरी बताती हैं- प्रशिक्षण के दौरान या फिर नौकरी के शुरुआती दिनों में इस लैंगिक पूर्वाग्रह का आभास नहीं होता। लेकिन कोई तो वजह है कि बहुत कम महिलाएं निर्णय लेने की सशक्त भूमिका में होती हैं या फिर ऊपर की सीढ़ी चढ़ पाती हैं। आंचल आगे कहती हैं कि उनके अपने कैडर में ही पुराने बैच की बहुत कम महिलाएं प्रभावशाली पदों पर आसीन हैं।

3 जनवरी 2022 तक, भारत सरकार के 92 सचिवों में से महज 14% यानी 13 ही महिलाएं हैं। 3 दिसंबर 2021 तक की बात करें तो देश के कुल 36 राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों को मिलाकर केवल 2 महिलाएं ही मुख्य सचिव थीं। अब तक भारत में एक भी महिला कैबिनेट सचिव के तौर पर काबिज नहीं हो पाई है। टीसीपीडी का डाटा बताता है कि ज्यादातर महिलाएं अपना कार्यकाल पूरा कर ही रिटायर होती हैं फिर भी पुरुषों के मुकाबले उनसे ऐच्छिक सेवानिवृति की उम्मीद की जाती है।

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