बहुत साल हो गए, जब मेरा सामना पर्यावरण संबंधी जिम्मेदारी की चौंकानी वाली परिभाषा से हुआ था, ‘हम एक सीमित क्षेत्र के भीतर से जो कुछ भी चाहते हैं, उसका उत्पादन करते हैं, तो हम उत्पादन के तरीकों की निगरानी की स्थिति में होते हैं; जबकि अगर हम पृथ्वी के किसी अन्य छोर से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं, तो वहां उत्पादन की स्थितियों की गारंटी देना हमारे लिए असंभव हो जाता है।' यह सूत्र वर्ष 1948 में आजादी के तुरंत बाद जे सी कुमारप्पा ने गढ़ा था। महात्मा गांधी के करीबियों में शामिल अर्थशास्त्री कुमारप्पा के शब्द मेरी याद में तब लौटे, जब मैं गांवों के हिस्से के पानी को बेंगलुरु शहर की ओर मोड़ने के विरोध के बारे में पढ़ रहा था।
मेरे शहर बेंगलुरु की जरूरतें एक समय उसकी झीलों, जलाशयों के नेटवर्क से बहुत हद तक पूरी हो जाती थीं, लेकिन जब यह बड़ा नगर बन गया, आबादी कई गुना बढ़ गई, तो झीलें कंक्रीट से भर दी गईं। मेरे पिता 1940 के दशक के बेंगलुरु को अक्सर याद करते थे कि नगरपालिका की सीमाओं के अंदर ही कई दर्जन जलाशय थे। पिता उनमें तैरते थे या उनके चारों ओर साइकिल चलाते थे। अब केवल दो जलाशय बचे हैं। 1930 के दशक में ही स्थानीय जलाशयों को बेंगलुरु की जरूरतों के लिए पर्याप्त न मानते हुए 20 मील पश्चिम की ओर थिप्पेगोंडाहल्ली में डैम का निर्माण किया गया था।
इसमें दो नदियों, अराकावती और कुमुदावती का पानी एकत्र होता था। वर्ष 1931 में नगर की आबादी मोटे तौर पर तीन लाख थी। 1970 के शुरुआती वर्षों में यह पांच गुना बढ़कर 15 लाख हो गई। तब नगर के पश्चिम की ओर 60 मील दूर बहने वाली कावेरी का पानी बेंगलुरु लाने की परियोजना आई। आबादी बढ़ी, तो और भी परियोजनाएं बनीं। कावेरी परियोजना चरण एक, दो, तीन, चार और अभी पांचवां चरण चल रहा है। अब लगता है, कावेरी के पास देने के लिए और पानी नहीं बचा। अब बेंगलुरु को पानी के लिए और आगे शारावती तक जाना होगा। यह नदी नगर के उत्तर-पश्चिम दिशा में 180 मील दूर बहती है। नगर के बाशिंदे इस नदी पर नजरें गड़ाए बैठे हैं और कर्नाटक सरकार विस्तृत परियोजना बनाने में जुट गई है।
कावेरी और शारावती, दोनों ही बेहद खूबसूरत नदियां हैं। इंसानों ने पहले उन्हें सिंचाई और घरों को रोशन करने के लिए बांधा और अब वे इनसे पानी हड़पकर अपने नल, बगीचे भरना चाहते हैं, अपने औद्योगिक कूलिंग प्लांट चलाना चाहते हैं। पहले एक नदी 20 मील दूर, फिर एक नदी 60 मील दूर और अब एक नदी जो 180 मील दूर है। हालांकि मेरा शहर जो कर रहा है, वह आर्थिक रूप से अपव्यय ही है, क्योंकि लंबी दूरी तक पाइप बिछाने और बिजली के पंप चलाकर पानी लाने में बहुत खर्च आता है। यह सामाजिक रूप से भी अन्यायपूर्ण है। कई गांव और छोटे शहर वंचित हो जाएंगे। शिवमोगा उस जिले का मुख्यालय है, जहां से शारावती निकलती है, वहां पानी का रुख राज्य की राजधानी बेंगलुरु की ओर मोड़ने के विरोध में बंद भी हुए हैं। पानी लाने का यह कदम पर्यावरण की दृष्टि से अविवेकपूर्ण है, जिसकी चेतावनी बहुत पहले ही जे सी कुमारप्पा ने दे दी थी। संसाधन जितनी दूर से आएगा, उसका उपभोग करने वाले उसके मूल्य व किफायती इस्तेमाल के प्रति उतने ही ज्यादा लापरवाह रहेंगे। त्रासद यह कि बेंगलुरु के नागरिक मानकर चल रहे हैं कि वे राज्य के सबसे शक्तिशाली नागरिक हैं, अत: उनके लिए पानी की आवक जारी ही रहेगी।
यह केवल मेरे शहर की समस्या नहीं है, इस समस्या की गूंज देशव्यापी है। भारत अनेक खामियों और समस्याओं की भूमि है, लेकिन इनमें से सबसे गंभीर जल समस्या है। 1980 के दशक में पर्यावरणविद जयंत बंदोपाध्याय ने दूरदर्शिता के साथ लिखा था कि जल की गुणवत्ता और उपलब्धता केंद्रीय विषय रहेगी और भारत का भविष्य जल है, तेल नहीं। तब उन्हें किसी ने नहीं सुना, लेकिन आज हर संवेदनशील व्यक्ति इस विषय की गंभीरता जान चुका है। हमारी बड़ी और छोटी नदियों में प्रदूषण का स्तर बहुत चौंकाने वाले उच्च स्तर पर है। देश के सभी राज्यों में भूजल स्तर नीचे जा चुका है, भूजल दूषित हो चला है। असमान वर्षा हो रही है, पहले से ज्यादा जिले सूखाग्रस्त हो रहे हैं। शहर दर शहर नल सूखते जा रहे हैं। इन सभी कारणों से जल के उपयोग, दुरुपयोग, उपलब्धता, अभाव से जुड़े प्रश्न देर से ही सही, सार्वजनिक और राजनीतिक बहस के विषय बनने लगे हैं।
मैं इच्छुक लोगों को इस विषय पर बेहतरीन किताबें पढ़ने की सलाह दूंगा। दो किताबें अंग्रेजी में हैं और एक हिंदी में। मिहिर शाह और पी एस विजयशंकर द्वारा संपादित किताब- वाटर : ग्रोविंग अंडरस्टेंडिंग, इमर्जिंग पर्सपेक्टिव। जयंत बंदोपाध्याय की किताब- वाटर, इकोसिस्टम ऐंड सोसायटी: ए कंफ्लुएंस ऑफ डिसिपलिन्स और अनुपम मिश्र की किताब- आज भी खरे हैं तालाब।
मैं इस विषय का विशेषज्ञ नहीं हूं, लेकिन चेतावनी के कुछ शब्द सामने रखना चाहता हूं। पहला, जब शहर विपत्ति और लालच के लिए दोषी हैं, तो गांव भी नैतिक रूप से उदाहरण नहीं बन पाए हैं। जब राज्य दर राज्य मुफ्त बिजली का प्रावधान किया गया, तो अपव्यय को ही बढ़ावा मिला। दूसरी बात, हमें आपूर्ति सापेक्ष दृष्टि की बजाय मांग सापेक्ष दृष्टि रखनी चाहिए। जल की महंगी परियोजनाएं बनाने की बजाय हमें जल का उपयोग मितव्ययिता के साथ करना चाहिए। तीसरी बात, समाधान की तलाश में हमें ठोस वैज्ञानिकता से संचालित होना चाहिए, नरम आध्यात्मिकता से नहीं। ऐसा क्यों है कि हमारी पवित्र नदियां ही ज्यादा दूषित हैं और उन्हें ही सर्वाधिक बांधा भी गया है? हमें और हमारी सरकारों को जलविदों, पर्यावरणविदों, नगरीय योजनाकारों और पर्यावरणीय अर्थशास्त्रियों को गौर से सुनना चाहिए। चौथी बात, प्रकृति के नियम अर्थशास्त्र के नियमों की तुलना में अधिक अपरिवर्तनीय और अधिक प्रकोप वाले हैं। अर्थशास्त्र के नियमों की अनदेखी हमें व्यक्तिगत उद्यम की विफलता या वित्तीय घाटे की बढ़त की ओर ले जाएगी, लेकिन प्रकृति के नियमों की अनदेखी हमें एक गांव, एक शहर, एक राज्य, एक देश और सभ्यता की मौत की ओर ले जाएगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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