तमाम ख्वाहिशों पर भारी बच्चों का स्कूली खर्च |
नयी दिल्ली: दिल्ली की गौरी ने अपने घरेलू बजट में कटौती करके अपनी बच्ची
के स्कूल प्रोजेक्ट का महंगा सामान खरीदा, पटना की अंजू को अपने दो बच्चों
को स्कूल भेजने पर आने वाले खर्च की चिंता सता रही है, चंडीगढ़ के
कौशलेद्र आठवीं और दसवीं में पढ़ने वाले बच्चों को ट्यूशन फीस के लिए अपनी
कमाई बढ़ाने की जुगत में हैं.
देश के तमाम अभिभावक अपने बच्चों की पढ़ाई पर आने वाले खर्च से परेशान हैं. कमरतोड़ महंगाई के इस जमाने में अभिभावकों की चिंता भी अपनी जगह सही है. यह बात आम लोग ही नहीं बल्कि उद्योग परिसंघ एसोचैम भी महसूस कर रहा है जिसने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि पिछले करीब एक दशक में स्कूल में बच्चों की पढाई पर आने वाले खर्च में 168 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है. महंगाई बढ़ने से अधिकांश परिवार का बजट गड़बड़ा रहा है. अभिभावक अन्य खर्च में कटौती कर भी लें लेकिन बच्चों के भविष्य से जुड़े स्कूली खर्च में कैसे कटौती करें. इस अवधि में स्कूल की ट्यूशन फीस 32,800 रुपये से बढ़कर तीन लाख रुपये तक पहुंच गई. शिक्षा एवं कैरियर काउंसलर अंजली कुमार का मानना है कि पहले अभिभावक अपने बच्चों को स्कूली शिक्षा के साथ व्यवसायिक कोर्स एवं अन्य पाठ्यक्रम में दाखिला दिलाते थे लेकिन स्कूली खर्च में वृद्धि के कारण अब इस चलन में कमी देखने को मिली है. एसोचैम ने कुछ समय पूर्व अपनी रिपोर्ट में कहा था कि साल 2000 में जहां बच्चों की स्कूल यूनीफार्म पर सालाना 2,500 रुपये खर्च आ रहा था वहीं 2011.12 में यह बढ़कर 4,000 से 10 हजार रुपये तक हो गया है. साल 2000 में जूते, सैंडल एवं ऐसी अन्य चीजों पर सालाना 3,000 रुपये खर्च आता था जो करीब एक दशक में बढ़कर 8,000 रुपये से 12 हजार रुपये हो गया है.रिपोर्ट के अनुसार, करीब एक दशक पहले बच्चों की किताबों का खर्च सालाना सात हजार रुपये होता था जो अब बढ़कर 12.15 हजार रुपये हो गया है. बहरहाल, कुमार ने कहा कि आज के स्कूल की इमारतें ऐसी है जैसे कोई पंचसितारा होटल हो और इसके रखरखाव पर जो खर्च आता है, वह छात्रों से ही वसूला जाता है. अक्सर स्कूल में छोटे मोटे कार्यक्रम आयोजित होते रहते हैं और इन कार्यक्रमों के लिए अतिरिक्त रकम वसूली जाती है.
उन्होंने कहा कि लोगों के दिमाग में यह बात घर कर गई है कि अच्छी पढ़ाई
तो नामी गिरामी स्कूलों में ही होती है. तीन.चार दशक पहले न तो ऐसे भव्य
स्कूल थे और न ही ऐसे कार्यक्रम होते थे. बच्चों को स्कूली शिक्षा सुगम बनाने के संवैधानिक अधिकार को अमल में लाने की दिशा में सरकार ने प्रयास किया और छह से 14 वर्ष के बच्चों को नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार कानून लागू किया है लेकिन गुणवत्तापूर्ण, सुगम और सस्ती शिक्षा अभी भी दूर की कौड़ी बनी हुई है. |