प्रतिष्ठा का प्रश्न बना भूमि अधिग्रहण विधेयक - परंजॉय गुहा

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published Published on Apr 5, 2015   modified Modified on Apr 5, 2015
मोदी सरकार का भू-अधिग्रहण अध्यादेश 5 अप्रैल को समाप्त हो रहा है और सरकार ने पुन: अध्यादेश लाने का निर्णय किया है। यह एक बहुत बड़ा राजनीतिक जुआ है। चूंकि राजग के पास राज्यसभा में बहुमत नहीं है, इसलिए पूरी संभावना है कि जब यह अध्यादेश विधेयक की शक्ल में वहां जाएगा, तो निरस्त हो जाएगा। ऐसे में सरकार के पास संसद का संयुक्त सत्र बुलाने के सिवा कोई और चारा नहीं रह जाएगा। लेकिन क्या सच में सरकार के पास कोई और विकल्प नहीं है?

नहीं, सरकार के पास एक और विकल्प है। और वो यह कि इस विधेयक पर छिड़े विवाद को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनाए और अध्यादेश के दूसरे संस्करण में कुछ और प्रावधानों को बदलने पर राजी होने की अपनी स्थिति से नीचे नहीं उतरे। 30 दिसंबर को लाए मूल अध्यादेश में सरकार नौ संशोधन करने पर राजी हो गई थी और यही विधेयक 10 मार्च को लोकसभा से पास हुआ। लेकिन अब जब प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री ने इस पर फिर से सख्त रवैया अख्तियार कर लिया है तो संभावना कम ही नजर आती है कि वे झुकने के लिए तैयार होंगे।

हालांकि सरकार को इस बात से राहत मिल सकती है कि दो महत्वपूर्ण क्षेत्रीय दलों, बीजद और अन्न्ाद्रमुक ने इस मुद्दे पर सरकार के प्रति झुकाव के संकेत दिए हैं, लेकिन इसके बावजूद राज्यसभा में बहुमत का आंकड़ा उससे दूर ही रहने वाला है। सरकार को शायद अब यह भी लगने लगा है कि अपने पूरे कार्यकाल के दौरान उसे राज्यसभा में इस समस्या का सामना करना पड़ सकता है, फिर चाहे विभिन्न् राज्यों के विधानसभा चुनावों में वह कितना ही अच्छा प्रदर्शन क्यों न करे। यह भी संयुक्त सत्र बुलाने को लेकर उसकी प्रकट व्यग्रता का कारण हो सकता है।

लेकिन आखिर झगड़े की जड़ क्या है और सरकार ने इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न क्यों बना लिया है? भूमि अधिग्रहण का मुद्दा राजनीतिक रूप से कितना संवेदनशील है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जब सरकार ने कांग्रेस द्वारा बनाए गए कानून में संशोधन करने की मंशा जताई तो तृणमूल कांग्रेस-माकपा, सपा-बसपा जैसे परस्पर धुर विरोधी दल भी एक साथ हो गए। इन सभी दलों को इस विषय पर कांग्रेस का साथ देने की सियासी तुक समझ में आई। वहीं सरकार की फजीहत तब होने लगी, जब राजग में शामिल अकाली दल, लोजपा और शिवसेना भी इस विधेयक का विरोध करने लगे। हद तो तब हो गई, जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से संबद्ध भारतीय किसान संघ और स्वदेशी जागरण मंच द्वारा भी इसका विरोध किया जाने लगा।

हालांकि सरकार बार-बार यह कह रही है कि उसका भूमि अधिग्रहण विधेयक कॉर्पोरेटों के पक्ष में और किसानों के विरोध में नहीं है, लेकिन वह अपने राजनीतिक विरोधियों को इससे सहमत नहीं करवा पा रही है। विधेयक का विरोध करने वालों का तर्क है कि 2013 के कानून के महत्वपूर्ण प्रावधानों जैसे अधिग्रहण से पहले भूमि-स्वामियों की पूर्व-अनुमति व सामाजिक प्रभाव आकलन में नाटकीय बदलाव किए गए हैं। वहीं मोदी और जेटली अपनी इस बात पर बने हुए हैं कि देश की अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करने और युवाओं के लिए रोजगार सृजित करने के लिए नई फैक्टरियों और बुनियादी ढांचे की परियोजनाओं की जरूरत है। जेटली ने विधेयक के विरोध को औद्योगिक क्रांति का विरोध तक करार दिया है।

इसके बावजूद, तथ्य यही है कि जब कांग्रेस ने 2013 में यह कानून बनाया था, तब भाजपा ने मुख्य विपक्षी दल होने के बावजूद उसका समर्थन किया था। यह भी सच है कि मौजूदा लोकसभा स्पीकर सुमित्रा महाजन की अगुआई में एक संसदीय समिति ने इस कानून के अनेक प्रावधान भी सुझाए थे, जिन्हें बाद में सम्मिलित किया गया। हां, इन खुलासों ने जरूर हलचलें पैदा की थी कि पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम और तत्कालीन उद्योग एवं वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा ने भी कानून के कुछ पहलुओं का विरोध किया था।

इसके बावजूद इससे कोई इनकार नहीं कर सकता कि 2013 के उस कानून पर तब एक व्यापक राजनीतिक सर्वसम्मति बनी थी। गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने विपक्षी दलों से आग्रह किया है कि वे विधेयक को संसद से पास होने दें और अगर बाद में ऐसा पाया जाता है कि इससे किसानों के हितों को क्षति पहुंच रही है तो कानून में अवश्य संशोधन किया जाएगा। लेकिन विपक्षी दल इस तरह के तर्कों को मानने को तैयार नहीं। सरकार मूल अध्यादेश में नौ संशोधन करने को राजी हो गई, इसी से यह साफ होता है कि अध्यादेश में बहुत कुछ विवादास्पद था।

महत्वपूर्ण संशोधन ये हैं कि किसी भी रेलवे लाइन या हाईवे के इर्द-गिर्द एक किलोमीटर के दायरे में औद्योगिक कॉरिडोर के लिए भूमि अधिग्रहीत नहीं की जा सकती, कि अधिग्रहण की अधिसूचना जारी करने से पहले सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि उसने बंजर-अनुपजाऊ भूमियों का सर्वेक्षण कर लिया है और वह कम से कम कृषि-भूमि का अधिग्रहण करेगी, कि सरकार अधिग्रहण से प्रभावित होने वाले परिवार के कम से कम एक सदस्य को रोजगार मुहैया कराएगी, कि किसी भी तरह के विवाद की जिला स्तर पर सुनवाई और निराकरण होगा, और यह कि निजी अस्पतालों और स्कूलों को लोकहित की संस्थाओं की श्रेणी में नहीं रखा जाएगा।

भारत के संविधान में यह व्यवस्था दी गई है कि जब सरकार कोई अध्यादेश लाए तो संसद के दोनों सदनों में से कम से कम एक का सत्र नहीं चालू होना चाहिए। लोकसभा और राज्यसभा का सत्र 23 फरवरी को शुरू हुआ था। 20 अप्रैल को पुन: संसदीय कामकाज शुरू होगा। लोकसभा में बजट सत्र जारी रहेगा और राज्यसभा का नया सत्र प्रारंभ होगा। भारत की संसदीय प्रणाली के मुताबिक राष्ट्रपति किसी विधेयक को पास कराने के लिए संसद का संयुक्त सत्र तभी बुला सकते हैं, जब संबंधित विधेयक संसद के दोनों में से किसी एक में निरस्त हो गया हो और इसके बाद छह माह की अवधि बीत चुकी हो। याद रखें कि स्वतंत्र भारत के इतिहास में अब तक केवल तीन बार ऐसा हुआ है, जब किसी विधेयक को पास कराने के लिए संयुक्त सत्र बुलाना पड़ा हो। ये हैं दहेज निवारण अधिनियम 1961, बैंक सेवा आयोग निरसन विधेयक 1978 और आतंकरोधी कानून (पोटा) 2002।

देल्ही स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के डॉ. राम सिंह का कहना है कि सरकार का यह तर्क दोषपूर्ण है कि किसानों को अधिग्रहीत भूमि के बाजार-मूल्य से दो से चार गुना तक कीमत का भुगतान किया जाएगा। इसका कारण यह है कि स्टाम्प ड्यूटी के भुगतान से बचने के लिए जमीनों को अमूमन बहुत कम दर्शाई गई कीमतों पर खरीदा-बेचा जाता है और साथ ही इसमें काले धन का खेल भी बड़े पैमाने पर चलता है। 2013 में बनाए गए कानून में प्रावधान किया गया था कि निजी फर्मों द्वारा भूमि अधिग्रहण के लिए 80 प्रतिशत और पीपीपी के लिए 70 प्रतिशत प्रभावित परिवारों की पूर्व-अनुमति आवश्यक है। इस तरह की परामर्श-आधारित और सहभागितापूर्ण अधिग्रहण-प्रक्रिया में मनमानीपूर्ण अधिग्रहण की संभावनाएं क्षीण हो जाती हैं और पुनर्वास और पुनर्स्थापन प्रभावितों का कानूनी अधिकार बन जाता है। सरकार इन दोनों प्रावधानों को हटाना चाहती है, जो कि अंग्रेजों द्वारा 1894 में बनाए गए कानून की ओर लौटने जैसा ही होगा!

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार व आर्थिक-राजनीतिक विश्लेषक हैं। ये उनके निजी विचार हैं)


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