लैंगिक असमानता के विरुद्ध- डा. अनुज लुगुन

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published Published on Jan 7, 2019   modified Modified on Jan 7, 2019
पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के आगरा में संजली नाम की एक लड़की को जलाकर मार देने की दहला देनेवाली घटना हुई. अपराधियों ने न केवल बेरहमी से लड़की को जलाकर मार डाला, बल्कि उनके परिवार वालों को फोन पर धमकी भी दी. अपराधियों को यह दुस्साहस कहां से आता है?

आमतौर पर हम यह स्वीकार नहीं करते हैं कि इस तरह की घटनाओं के पीछे स्त्रियों के बारे में समाज में प्रचलित धारणाएं काम करती हैं. ‘लड़की ही तो है' इस तरह स्त्रियों को दोयम दर्जे का माननेवाला विचार उनके विरुद्ध भविष्य में कितनी बड़ी घटनाओं को जन्म दे सकता है, हम इस पर विचार नहीं करते. हमारे ही घर-परिवारों में इस तरह का प्रशिक्षण चलता है.

एक तरफ लड़कियों को हीन बना दिया जाता है, तो दूसरी तरफ लड़कों में अहं का भाव भरा जाता है. जहां लड़कियों को हर समय समझौता करना सिखाया जाता है, वहीं लड़कों की हर जरूरत और जिद पूरी की जाती है. यही विचार समाज में परिपक्व होकर बाहर निकलता है.
खासतौर पर लड़के उस पुरुषवादी विचार से लैस हो जाते हैं, जो लैंगिक श्रेष्ठता से ग्रसित है. ऐसे में किसी लड़की का ‘न' कहना उनके पुरुषवादी अहं को चोट पहुंचाता है और प्रत्युत्तर में किया गया उनका आपराधिक कृत्य उन्हें विचलित भी नहीं करता.

लड़कियों के विरुद्ध होनेवाले आपराधिक घटनाओं के पीछे पुरुषवादी विचार बहुत गहरे स्तर पर शामिल रहता है. ऐसे में अगर लड़की दलित-वंचित समुदाय की हो, तो उसकी त्रासदी और बढ़ जाती है. हमारे देश के जातिवादी सामाजिक ढांचे में पुरुषवादी विचार और भी क्रूर और हिंसक है. इसे कई तरीकों से सामाजिक मान्यता मिलती रहती है.

नारीवादी विचारक जोर देकर कहती हैं कि ‘लड़कियां पैदा नहीं होतीं', बल्कि ‘लड़कियां बनायी जाती हैं'. यह विचार पितृसत्तात्मक मूल्यों को अप्राकृतिक और हास्यास्पद लगता है.

वे इसे न केवल नकारते हैं, बल्कि अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए इसका उपहास भी उड़ाते हैं. क्या यही पितृसत्तात्मक विचार स्त्रियों के विरुद्ध होनेवाले अपराध में शामिल नहीं होता है? हमारे समाज के वर्चस्ववादी इस लैंगिक भिन्नता को लगातार कायम करते हुए चले आ रहे हैं. उनका यह विचार सामाजिक संस्थाओं को जकड़कर रखा है. संस्कार और मान्यताओं के नाम पर इसे संचालित किया जाता है. धर्म, राजनीति, शिक्षण हर जगह यह मौजूद है. यथास्थितिवादी होना ही उसकी ताकत है.

वह हजारों साल पुरानी रीतियों को उसी तरह रहने देने का हिमायती है. इसलिए हाल के दिनों में देखा गया है कि पुरातन विचारों के विरुद्ध बने कानूनों का रूढ़िवादियों ने जमकर विरोध किया है और आधुनिक न्याय प्रणाली के साथ उनकी टकराहट भी बढ़ी है. यह सिर्फ हमारे ही समाज में नहीं है, बल्कि वैश्विक समाज में बहुत गहराई के साथ व्याप्त है.

कुछ समय पहले चिली में आधा दर्जन सिस्टरों ने अपने सीनियर पादरियों द्वारा किये गये उत्पीड़न की शिकायत की थी. उसी तरह ‘मी टू' कैंपेन के दौरान इटली की एक नन ने अपने साथ हुए उत्पीड़न का खुलासा किया था.

लेकिन, इनकी शिकायतों को गंभीरता से नहीं लिया गया. पिछले दिनों पाकिस्तान में ईशनिंदा के मामले में वहां के मुल्लाओं और धार्मिक कट्टरपंथियों ने आसिया बीबी नामक एक स्त्री को वहां के सुप्रीम कोर्ट द्वारा बरी किये जाने का जमकर विरोध किया. कट्टरपंथियों ने आसिया के विरुद्ध मौत के फरमान भी जारी किये. यह सब सदियों पुरानी रीतियों और संस्कार के नाम पर ही हुआ.

हमारे देश में केरल के सबरीमाला मंदिर में स्त्रियों के प्रवेश को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध बना हुआ है. धार्मिक कट्टरपंथी इस बात को स्वीकार नहीं कर रहे हैं कि भगवान अयप्पा के दर्शन का अधिकार स्त्रियों को भी होना चाहिए.

माना जाता है कि अयप्पा ब्रह्मचारी थे, इसलिए रजस्वला स्त्रियों को उनके मंदिर में प्रवेश की इजाजत नहीं है. रजस्वला यानी पीरियड्स होनेवाली उम्र की स्त्रियों को धार्मिक मान्यताओं के अनुसार अपवित्र माना जाता है. यह सदियों पुरानी मान्यता है.

यह आधुनिक समय के विचार के उलट है. आज के समय में यह स्त्रियों के संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है. सुप्रीम कोर्ट ने उनके मौलिक अधिकारों के मद्देनजर अयप्पा मंदिर में उनके प्रवेश की अनुमति दी है. लेकिन, पुरातन धार्मिक विचार के पालक इस विचार को स्वीकार नहीं कर रहे हैं. इसे वे अपनी परंपरा के विरुद्ध मान रहे हैं.

समाज में लैंगिक भेद ऐसी ही परंपराओं के रूप में विद्यमान है. यह धार्मिक मान्यताओं के साथ तो और भी जटिल रूप से गुंथा हुआ है. क्या यह द्रष्टव्य नहीं है कि दुनिया के धार्मिक इतिहास में आज तक कोई स्त्री धार्मिक सर्वेसर्वा नहीं बन पायी है? न ही कोई स्त्री पोप बनी है, न ही शंकराचार्य, न ही मौलवी, न लामा और न ही किसी अन्य धर्म की सर्वोच्च धर्माधिकारी.

हमारा समाज परंपरा के नाम पर कई रूढ़ियों का वाहक भी है, इस पर विचार करना चाहिए. यह रूढ़ि कहीं लिंगभेद के रूप में मौजूद है, तो कहीं जातिभेद के रूप में, तो कहीं रंगभेद के रूप में. मानव सभ्यता ऐसी रूढ़ियों के विरुद्ध लड़ते हुए ही आगे बढ़ी है. किसी समय में शूद्रों को अछूत मानकर उनकी परछाई तक से लोग दूर रहते थे, दास के रूप में अश्वेतों को खरीदा-बेचा जाता रहा.

आधुनिक समय के कठोर कानूनों के बावजूद आज भी यह समस्या खत्म नहीं हुई है. परंपरा के नाम पर यह विचार आज भी मजबूती के साथ मौजूद है. स्त्रियों के विरुद्ध लैंगिक भेद सदियों से बना हुआ है. ‘थर्ड जेंडर' को तो समाज ने मनुष्य ही नहीं माना. उसे जन्म लेते ही समाज से बाहर कर दिया जाता है.

वह तो लैंगिक असमानता का दोहरा अभिशाप झेलता है. हमें यह समझना चाहिए कि जो व्यवहार समय के साथ संगत नहीं बनाता, वह परंपरा नहीं होती बल्कि वह रूढ़ि होती है. यही रूढ़ि आधुनिक विचारों से टकराती है और अपराध को जन्म देती है. परंपरा तो समय के साथ तालमेल बनाती हुई चलती है.

इस दरम्यान केरल की महिलाओं ने छह सौ बीस किलोमीटर लंबी मानव शृंखला बनाकर लैंगिक असमानता के विरुद्ध एक बड़ा प्रदर्शन किया है. उन्होंने धार्मिक सहिष्णुता की बात कही है. यह उम्मीद है उन रूढ़ियों के विरुद्ध, जो समाज के वंचित तबकों के विरुद्ध अपराध को जन्म देती हैं. जो किसी स्त्री को स्त्री होने के नाते कहीं वर्जित करती हैं, तो कहीं उसके जीने के अधिकार को ही छीन लेती हैं.

https://www.prabhatkhabar.com/news/columns/sexual-inequality-against/1238225.html


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