विफलता के बड़े मोर्चे-- भारत डोगरा
विश्व इतिहास में समानता और न्याय के मुद््दे सबसे महत्त्वपूर्ण रहे हैं। ये आज भी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं, पर इक्कीसवीं शताब्दी आते-आते कुछ ऐसे मुद््दे भी इसमें जुड़ गए हैं जो धरती पर जीवन के अस्तित्व को लेकर हैं। इनमें मुख्य हैं जलवायु बदलाव जैसे पर्यावरण के गंभीर संकट तथा महाविनाशक हथियारों से जुड़े खतरे। अब एक बड़ी चुनौती यह है कि जीवन के अस्तित्व को संकट में डालने वाले मुद््दों को समय रहते सुलझाया जाए और यह कार्य समता और न्याय के लक्ष्यों से जोड़ कर ही प्राप्त किया जाए। वैज्ञानिकों के अनुसंधान ने हाल में धरती के सबसे बड़े संकटों की ओर ध्यान दिलाया है। अनुसंधान में धरती पर जीवन की रक्षा के लिए नौ विशिष्ट सीमा-रेखाओं की पहचान की गई है, जिनका अतिक्रमण मनुष्य को नहीं करना चाहिए। यह गहरी चिंता की बात है कि इन नौ में से तीन सीमाओं का अतिक्रमण आरंभ हो चुका है। ये तीन सीमाएं हैं- जलवायु बदलाव, जैव-विविधता का ह्रास और भूमंडलीय नाइट्रोजन चक्र में बदलाव। इसके अलावा चार अन्य सीमाएं ऐसी हैं, जिसका अतिक्रमण होने की संभावना निकट भविष्य में है। ये चार क्षेत्र हैं- भूमंडलीय फासफोरस चक्र, भूमंडलीय जल उपयोग, समुद्रों का अम्लीकरण और भूमंडलीय स्तर पर भूमि उपयोग में बदलाव। इस अनुसंधान में पता चला है कि इन अतिसंवेदनशील क्षेत्रों में कोई सीमा-रेखा एक निश्चित बिंदु के आगे पहुंच गई तो बहुत अचानक बड़े पर्यावरण बदलाव हो सकते हैं। ये बदलाव ऐसे भी हो सकते हैं, जिन्हें सीमा-रेखा पार होने के बाद रोका न जा सके या पहले की जीवन पनपाने वाली स्थिति में लौटा न जा सके। वैज्ञानिकों की भाषा में, ये बदलाव ऐसे हो सकते हैं जो उत्क्रमणीय (रिवर्सिबल) न हो।
इनमें जलवायु बदलाव और जल संकट पर ही अभी व्यापक स्तर पर ध्यान आकर्षित हुआ है। लेकिन कोई असरदार कार्रवाई नहीं हुई है। संयुक्त राष्ट्र ने कुछ समय पहले अपनी रिपोर्ट में बताया था कि जलवायु बदलाव नियंत्रित करने पर क्योतो समझौता होने के बाद भी 1990 और 2009 के बीच कार्बन डाइआॅसाईड में प्रति वर्ष भारी वृद्धि जारी रही। जहां जलवायु बदलाव के दौर में तापमान वृद्धि को 20 डिग्री सेल्शियस तक नियंत्रित रखना अतिआवश्यक है, वहां मौजूदा प्रवृत्तियों के आधार पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने जो अनुमान प्रस्तुत किए हैं, उसके अनुसार इस शताब्दी में तापमान वृद्धि 2.5 से 5 डिग्री सेल्शियस तक हो सकती है।अगर तापमान 20 डिग्री सेल्शियस बढ़ा तो भी समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा, अनेक निचले क्षेत्र डूबेंगे और आपदाएं विकट होंगी। अनेक विकासशील और गरीब देशों विशेषकर छोटे टापू देशों ने मांग की है कि सहनीय सीमा को बीस डिग्री सेल्शियस कम कर 1.50 डिग्री सेल्शियस कर दिया जाए। पर 1.50 डिग्री सेल्शियस तक तापमान वृद्धि सीमित करने की शायद अब क्षमता नहीं बची है। अब तापमान वृद्धि को 20 डिग्री सेल्शियस तक सीमित करने के लक्ष्य की ही चर्चा हो रही है। अगर तापमान वृद्धि 20 डिग्री सेल्शियस से पार कर गई तो चर्चित निश्चित बिंदु (टिपिंग प्वाइंट) पार हो जाएगा या जलवायु बदलाव की समस्या को निंयत्रित करना बहुत हद तक मनुष्य की क्षमता से बाहर हो जाएगा। 20 डिग्री सेल्शियस पार करने पर धरती की प्राकृतिक प्रक्रियाएं टूटने लगेंगी। बहुत सी ग्रीनहाउस गैस जो साइबेरिया के ठंडे क्षेत्र में जमी पड़ी है, वह वायुमंडल में उत्सर्जित हो जाएगी। आर्द्रता वाले वर्षा वन अपनी नमी खोकर ज्वलनशील हो जाएंगे और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन इस कारण भी होगा। यानी स्थिति हाथ से निकल जाएगी। आपदाएं बहुत विकट हो जाएंगी, खाद्य-उत्पादन छिन्न-भिन्न हो जाएगा। कई नई बीमारियों का खतरा झेलना पड़े, विभिन्न प्रजातियां के नष्ट होने की दर और तेज हो जाएगी।
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http://www.jansatta.com/politics/jansatta-article-about-environment-and-world/452396/
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