Resource centre on India's rural distress
 
 

होनहारों को उनका हक चाहिए-- शशि शेखर

कर्मचारी चयन आयोग की प्रतियोगी परीक्षाओं में हुई धांधली परत-दर-परत खुलती जा रही है। यही हाल सीबीएसई बोर्ड की परीक्षाओं में हुए गड़बड़झाले का है। इस तरह के पुराने मामले के अन्वेषण के अगुआ रहे एक अवकाश प्राप्त अधिकारी का मानना है कि यह ऐसी दलदल है, जिसमें जितना खोदो, उतना कीचड़ हाथ आएगा।

देश के नौनिहालों के भविष्य से खिलवाड़ का यह सिलसिला पुराना है। एक आपबीती बताता हूं-

मैंने 1975 में उत्तर प्रदेश के एक छोटे शहर मैनपुरी से हाईस्कूल पास किया था। मेरा विद्यालय उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद से संबद्ध था। उस जमाने में देश के सबसे बडे़ इस ‘बोर्ड' की बड़ी ख्याति हुआ करती थी, पर अंदर से उसका हाल क्या था? मेरा परीक्षा केंद्र श्री चित्रगुप्त इंटर कॉलेज में था। शहर के बीचोबीच स्थित इस इंटर कॉलेज के चारों ओर जो दुकानें अथवा व्यावसायिक प्रतिष्ठान थे, उन पर परीक्षाओं के दौरान शहर के शोहदे कब्जा जमा लेते। ये खुद नकल करके पास हुए थे और नकल कराने के मामले में इनका रुतबा सिद्ध पुरुषों से कम न था।

जो छात्र साल भर महज मटरगश्ती करते, वे परीक्षा के दौरान ‘पत्रम्-पुष्पम्' लेकर उनके दरबार में हाजिर हो जाते। इसके अलावा दर्जनों ऐसे थे, जो समूचा साल इनकी ‘भक्ति' में गुजार दिया करते। ‘तफरीह' के साथ परीक्षा की वैतरणी पार लगने की गारंटी जो थी। शहर के बच्चे इनमें से कुछ को ‘खलीफा' बुलाते। इम्तिहान से पहले ही वे किसी परीक्षार्थी, चपरासी, शिक्षक, अथवा क्लर्क को ‘सेट' कर लेते थे, ताकि वह पर्चा बंटते ही किसी तरह उसे बाहर फेंक दे। नीचे की सड़कों पर तमाम नौजवान टकटकी लगाए स्कूल की मुंडेरों की ओर देखा करते कि कब पर्चा या परचे नमूदार होंगे। जैसे ही पर्चा उनके हाथ आता, पहले से तैयार बैठे कुछ वरिष्ठ विद्यार्थी अथवा अध्यापक उन्हें क्रमवार तरीके से हल करते जाते। हल किए हुए पर्चे को ढेलों में लपेटकर वापस स्कूल परिसर में फेंक दिया जाता, जहां से वह लाभार्थी तक पहुंच जाता।

इन ‘खलीफाओं' का भय अथवा रसूख इतना होता कि अक्सर यह कार्य निर्विघ्न तौर पर निपट जाता। यदि इस दौरान कभी ‘फ्लाइंग स्क्वाड' का छापा पड़ता, तो पहले से ही शहर के विभिन्न चौराहों पर तैनात उनके गुर्गे सीटियों, पक्षियों अथवा कुत्ते की आवाजों के जरिए उन्हें चौकन्ना कर देते। गेट पर तैनात चौकीदार के पास भी उन्हें बाहर ही अटकाए रखने की तमाम तकनीकें होती थीं। कभी चाबी खो जाती, तो कभी वह उसे लेने बड़े बाबू के पास चला जाता अथवा खुद को शौचालय में बंद कर लेता। नकलचियों को संभलने के लिए इतना समय पर्याप्त होता।

यह हाल तब था, जब देश में ‘इमरजेंसी' लागू थी। अगर आपने उस दौरान होने वाले पुलिस अत्याचार के किस्से सुने हों, तो बता दूं कि श्री चित्रगुप्त इंटर कॉलेज से सबसे नजदीकी पुलिस चौकी लगभग पांच सौ मीटर, ‘छोटी' कोतवाली एक किलोमीटर और ‘बड़ी' कोतवाली अधिक से अधिक दो किलोमीटर दूर थी। यहां तैनात पुलिसकर्मियों की ड्यूटी इन केंद्रों पर लगाई जाती, ताकि परीक्षाएं ‘निर्विघ्न' तौर पर संपन्न हो सकें। अब यह बताने की जरूरत तो नहीं कि इस निर्विघ्नता का फलितार्थ क्या था? यह तो शहर के मध्य में स्थित परीक्षा केंद्र का हाल था। दूर-दराज के गांवों में खुला खेल फर्रुखाबादी था। ‘राष्ट्र-संत' विनोबा भावे ने इन्हीं दिनों को ‘अनुशासन पर्व' कहा था।

यह स्थिति हम जैसे दर्जनों छात्रों के लिए त्रासद थी, जो नकल को हेयदृष्टि से देखते। उन पर दोतरफा मार पड़ती। एक तरफ नकलचियों से पिछड़ने का भय सताता, तो दूसरी ओर दूर के जिलों के जांच केंद्रों में बैठे परीक्षक काफी कठोर तरीके से कॉपी जांचते। वे गलत नहीं थे। नकल के मामले में कुछ जिले कुख्यात थे और उनकी नजर में वहां का हर परीक्षार्थी संदिग्ध। गेहूं के साथ घुन पिसने की कहावत का असल अर्थ तभी समझ में आ गया था। इस सबके बावजूद मैं उन दिनों को आज से बेहतर पाता हूं, क्योंकि तब परीक्षाओं में नकल और प्रतियोगिताओं में भ्रष्टाचार ने ‘उद्योग' का दर्जा नहीं हासिल किया था।

उत्तर भारत के कुछ राज्यों में ये कुरीतियां अब स्थापित उद्योग का दर्जा हासिल कर चुकी हैं। जब नीतीश कुमार या योगी आदित्यनाथ जैसे मुख्यमंत्री इन पर कुठाराघात करते हैं, तो तमाम छात्र इम्तिहान देने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। पिछले वर्ष दोनों प्रदेशों के परीक्षार्थियों और परिणामों में गिरावट इसी का नतीजा थी। आपने गौर किया होगा। परीक्षा परिणामों के तत्काल बाद कुछ लोगों ने हाय-तौबा मचानी शुरू कर दी कि यह सरकारी बदइंतजामी का दुष्परिणाम है। कल्याण सिंह के वक्त में तो यह लॉबी इतनी सफल रही थी कि चुनाव परिणामों पर प्रतिकूल असर पड़ गया था। तब से नेता इस मामले में हाथ डालने से बचते रहे हैं। यही नहीं, कुछ ने खुद भी बहती गंगा में जमकर हाथ धोए। इन नेताओं ने ही नकल और प्रतियोगी परीक्षाओं को उद्योग में तब्दील करने में निर्णायक भूमिका अदा की। अब उसके निराशाजनक परिणाम सामने आने लगे हैं।
कुछ दिनों पहले आए ‘प्रथम' संस्था के एक सर्वे से यह पता चला था कि 14 से 18 साल का दस में से एक बच्चा कक्षा एक या दो की किताबें भी अपनी जुबान में नहीं पढ़ पाता है, जबकि ये पांच से सात वर्ष के बच्चों के लिए प्रस्तावित किताबें हैं। ग्रामीण भारत में तो 10 में से चार किशोर अक्षम पाए गए। यही नहीं, 36 फीसदी ग्रामीण छात्रों को तो अपने देश की राजधानी का नाम तक नहीं पता। रिपोर्ट के मुताबिक, इस आयु वर्ग के 57 प्रतिशत ग्रामीण छात्रों को तिहाई अंकों का विभाजन नहीं आता।

सवाल उठता है कि इस स्थिति में किया क्या जाए? जवाब साफ और सरल है। दिल्ली से लेकर सूबाई राजधानियों तक संविधान के अनुपालन की शपथ लेकर जो लोग सत्ता में बैठे हैं, वे इस कुरीति को जड़ से उखाड़ने का भी संकल्प लें। यह काम तत्काल शुरू करना होगा, क्योंकि तेजी से पनपते इस देश को हर क्षेत्र में कुशल पेशेवरों की जरूरत है। उनकी आपूर्ति संभव नहीं है, जब तक होनहारों को प्रश्रय और कमजोर छात्रों के उचित पठन-पाठन की व्यवस्था न हो। इसके साथ ही सभी प्रतियोगी परीक्षाओं को पूरी तरह पारदर्शी बनाना होगा, जिनके अभाव में हमारी तरक्की के दावे सिर्फ ढकोसला बने रहेंगे।