Resource centre on India's rural distress
 
 

एक डॉक्टर, जिन्होंने मुंबई की चकाचौंध छोड़, चुनी बिहार के गाँव में ज़िंदगियाँ बचाने की राह!

-द बेटर इंडिया,

ज़रा सोचिये कि आपके सामने बिहार के एक ऐसे अस्पताल का दृश्य है जहाँ एक स्वीपर बिना गल्व्ज के डिलीवरी करा रहा है, आस पास कुत्ते घूम रहे हैं, वहीं डिलीवरी के लिए नवजात शिशु को साफ करने के लिए उसकी ही माँ का पेटीकोट फाड़कर इस्तेमाल किया जा रहा है, इतना ही नहीं  डिलीवरी रूम के बाहर बायोमेडिकल कचरा पड़ा है जहाँ से भयाकर बदबू आ रही है, और तो और ऑपरेशन थियेटर में बनियान और हवाई चप्पल में डिलीवरी कराई जा रही है और सिजेरियन डिलीवरी के बाद नॉर्मल सुई धागे से टांके लगाए जा रहे हैं।

शायद ये सब पढ़कर ही आपका दिल दहल गया होगा लेकिन डॉ. तरु जिंदल ने ये सब अपनी आँखों के सामने होते हुए देखा है और फिर अपने ही हाथों से इस बदहाली को इतना बदला कि सरकार को उनके इस महान काम के लिए कायाकल्प अवार्ड देना पड़ा।

तो यह पूरी कहानी शुरू होती है एमबीबीएस के उन दिनों से जब तरु और उनके पति धरव ने यह ठान लिया था कि मुंबई के तो हर गली-नुक्कड़ में डॉक्टर मिल जाएंगे, लेकिन उनकी असल जरुरत ग्रामीण भारत में है। 2013 में गाइनोकॉलिजी में तरु का एमडी पूरी होने वाला ही था लेकिन उन्हें तब तक नहीं पता था कैसे और कौन से गाँव जाना है। लेकिन इसके बाद है जैसे अचानक चमत्कार हो गया।

जब बिल एंड मिलिंडा गेट फाउंडेशन ने दिया मौक़ा

तरु बताती हैं, ‘‘एमडी के आखिरी महीने में मुझे पता चला कि बिल एंड मिलिंडा गेट फाउंडेशन से एक प्रोजेक्ट बिहार में आया है। उन्हें गाइनोकॉलिजिस्ट और एनेस्थिटिक की जरूरत थी। वह चाहते थे कि बिहार के जिला अस्पतालों में स्वास्थ्य कर्मियों को सिजेरियन और स्पाइनल एनेस्थिसिया सिखाया जाए।  इस प्रोजेक्ट के लिए ‘डॉक्टर्स फॉर यू’ और ‘केयर इंडिया’ नाम के एनजीओ ने मिलकर ग्राउंड पर काम किया। डॉक्टर्स फॉर यू के प्रेजीडेंट रविकांत सिंह जोकि खुद बिहार से हैं, ने मुझे वहाँ जाने के लिए बोला। इसके बाद मैं मोतिहारी के ईस्ट चंपारण के डिस्ट्रिक्ट अस्पताल चली गई। इसी जगह से गांधी जी का नील सत्याग्रह शुरू हुआ था और मैं तो गांधी जी की फैन हूँ।’’

जब पहुँची ईस्ट चंपारण जिला अस्पताल

बिहार जाने के फैसले से घर वाले काफी चिंतित थे। डॉ. तरु को बिहार के बारे में काफी कुछ नकारात्मक बताया गया। लेकिन उन्होंने तो मन में ठान लिया था कि जाना है तो बस जाना है।

लेकिन जैसे ही डॉ. तरु अस्पताल पहुंची। वहाँ का नजारा तो कुछ और ही था। डॉ तरु बताती हैं, ‘‘एक दिन में 40 डिलीवरी हो रही थीं लेकिन वहाँ रखे सामान को सिर्फ नॉर्मल पानी से धोया जा रहा था। बच्चा पैदा होते ही अगर रोया तो ठीक वरना वह मृत घोषित हो जाता था। दो हफ्ते तक तो मैंने यही सब देखा। डॉक्टर्स भी बाहर अपनी प्राइवेट प्रेक्टिस कर रहे थे। उन्हें तभी बुलाया जाता था जब स्थिति हद से ज्यादा बिगड़ जाती थी। वरना वहीं का स्टाफ ही डिलीवरी करा देता था। यहाँ तक की स्वीपर्स भी।’’

ऐसी दशा देखकर पहले तो डॉ. तरु ने घर वापसी मन बना लिया लेकिन बाद में वहीं रुक कर  उन्होनें बदलाव लाने का फैसला कर लिया।

डॉ. तरु ने पहले वहाँ के स्टाफ को अपने विश्वास में लिया और फिर अपनी क्षमता दिखाई। वह घंटो डिलीवरी रूम में खड़ी रहती थीं और जहाँ भी स्थिति हाथ से बाहर जाने लगतीं वह संभाल लेतीं। ऐसा ही एक किस्सा याद करते हुए वह बताती हैं, ‘‘एक दिन डिलीवरी करने वाले ने डिलीवरी के बाद प्लेसेंटा खींच दिया जिससे यूट्रस बाहर आ गया। इस केस में मां की एक मिनट के अंदर ही जान जा सकती है। मुझे भागकर बुलाया गया। मैंने अपने हाथों से यूट्रेस को अंदर करके 45 मिनट तक दबाये रखा। तब जाकर उस माँ की जान बची। इस घटना के बाद लोगों को लगा कि शायद कोई मैजिक हो गया है और तब जाकर वो सभी मुझसे काफी ज्यादा काफी ओपन हो गए।’’

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