भरोसा बरकरार रखने की चुनौती - प्रदीप सिंह

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published Published on Feb 23, 2018   modified Modified on Feb 23, 2018
पंजाब नेशनल बैंक के घोटाले ने सरकारी बैंकों, बैंकों का ऑडिट करने वाली संस्थाओं और बैंकों के कामकाज पर निगरानी रखने वाले रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की क्षमता पर बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। इससे यह भी साबित हुआ है कि सरकारी बैंकों में नियुक्त होने वाले निदेशक और वित्त मंत्रालय के प्रतिनिधि सहित सब या तो गाफिल थे या शरीके जुर्म। वजह कुछ भी हो, वास्तविकता यही है कि सरकारी बैंक में रखा आम जनता की गाढ़ी कमाई का पैसा लुट गया। पिछले अनुभवों को देखते हुए, पैसा लौटेगा इसकी उम्मीद कम ही है, लेकिन लौट भी आए तो क्या बैंकिंग व्यवस्था पर भरोसा लौटेगा?

 

यह बड़ा सवाल है, जिसका जवाब केंद्र की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार को देना पड़ेगा। बात केवल जवाब से भी नहीं बनेगी। इसके लिए जिम्मेदार लोगों को सजा नहीं मिली तो भरोसा टूटने के साथ लोगों में निराशा बढ़ेगी। यह सही है कि ये घोटाला तबसे शुरू हुआ, जब केंद्र में डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार थी। मनमोहन सरकार भ्रष्टाचार के लिए कुख्यात थी, यह भी सबको पता है। पर यह 2018 है और केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार है। घोटाला अब उजागर हुआ है। ऐसे में इस सरकार की जिम्मेदारी है कि वह उसे अंतिम परिणति तक लेकर जाए। इस मसले पर पहली बार बोलते हुए वित्त मंत्री अरुण जेटली ने देश को यह आश्वासन दिया है कि किसी को बख्शा नहीं जाएगा। इसका मतलब है कि दोषियों को सजा मिलेगी और मोदी सरकार पिछली सरकार की तरह मामले पर पर्दा डालने की कोशिश नहीं करेगी, पर ऐसा कुछ कहना भर काफी नहीं है।

 

सवाल सिर्फ घोटाले, उसके उजागर होने और उसे लेकर होने वाली कार्रवाई का नहीं है। अब सवाल मोदी सरकार की रहबरी का भी है। इस सरकार की विडंबना यह है कि पूर्ववर्ती सरकार के समय हुए घोटालों की श्र्ाृंखला थमने का नाम ही नहीं ले रही है। पिछले साढ़े तीन साल में यह घोटाला क्यों नहीं थमा, इसके कई तकनीकी कारण हो सकते हैं और वे सब कारण सही भी हो सकते हैं तथा यह भी माना जा सकता है कि इस घोटाले में शामिल लोगों को बचाने का प्रयास नहीं होगा, लेकिन आम आदमी इतने ब्यौरे में नहीं जाता। वह इतना जानता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वादा किया था कि न खाऊंगा और न खाने दूंगा। इसके बावजूद नीरव मोदी और मेहुल चौकसी क्यों खाते रहे? उस व्यवस्था को बदलने के लिए सरकार क्या कर रही है कि भविष्य में ऐसा न हो सके? दुनिया भर में बैंक घोटाले होते हैं। भाररत में यह कोई अनहोनी बात नहीं है। लेकिन दूसरे देशों और हमारे देश में बुनियादी फर्क यह है कि वहां दोषियों को सजा मिलती है। हमारे यहां उनको और मजा करने की छूट।

 

सरकारी बैंकों का पूरा तंत्र भ्रष्टाचार के दलदल में आकंठ डूबा हुआ है, यह बात सबको पहले से पता थी। किसी और प्रमाण की जरूरत थी तो वह नोटबंदी के दौरान मिल गया। कालेधन को सफेद करने में भ्रष्ट बैंक कर्मचारियों की सबसे बड़ी भूमिका रही। 1969 में इंदिरा गांधी ने निजी बैंको का राष्ट्रीयकरण किया तो उसे लेकर तर्क यह दिया गया था कि ये निजी बैंक सिर्फ अमीरों के लिए काम कर रहे थे और गरीब आदमी की उन तक पहुंच नहीं थी। पिछले 49 सालों में इन सरकारी बैंकों ने जो किया, वह निजी बैंकशायद दो सौ साल में भी नहीं कर पाते, लेकिन धीरे-धीरे सरकारी बैंक क्रोनी कैपिटलिज्म का सबसे बड़ा जरिया बन गए। नेता, अफसर, उद्योगपति और सत्ता के दलालों के गठजोड़ ने दोनों हाथों से बैंकों को लूटा। बैंक के कर्ज की वसूली सिर्फ आम आदमी से होती रही। पैसे और रसूख वालों के कर्जे बट्टे खाते में जाते रहे। जिस गरीब आदमी तक बैंक को पहुंचाने के नाम पर निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ, उसके खाते तक नहीं खुले, किसी और सुविधा की तो बात ही छोड़िए। 45 साल में जितने लोगों के खाते खुले, उससे ज्यादा करीब तीस करोड़ खाते मोदी सरकार के राज में एक साल से भी कम समय में खुले। यह एक तथ्य यह साबित करने के लिए काफी है कि बैंक को गरीब आदमी तक पहुंचाने की पहले की सरकारों की प्रतिबद्धता कितनी थी।

 

स्टेट बैंक सहित सारे सरकारी बैंक अंदर से खोखले हो चुके हैं। ये पैसे वालों को कर्ज देते हैं और वसूल नहीं पाते या यह कहिए कि वसूलना ही नहीं चाहते और सरकार उसकी भरपाई सरकारी खजाने से करती है। सरकारी बैंकों के एक लाख ग्यारह हजार सात सौ अड़तीस करोड़ रुपए ऐसे लोगों के पास फंसे हैं, जिनकी माली हालत ऐसी है कि वे आसानी से कर्ज लौटा सकते हैं, पर लौटाने को तैयार नहीं हैं। जाहिर है कि कानून का डर नहीं है। अभी पिछले साल के अंत में सरकार ने घोषणा की थी कि सरकारी बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के लिए वह दो लाख ग्यारह हजार करोड़ देगी। इससे पहले भी सरकारें यही करती रही हैैं। नब्बे के दशक के उत्तरार्द्ध में आरके लक्ष्मण का एक कार्टून छपा था। बैंक डकैती करने आया शख्स मैनेजर की तरफ पिस्तौल ताने है। मैनेजर कह रहा है, हमारी एक कर्ज योजना भी है जो इतनी ही अच्छी है, आप उसे क्यों नहीं आजमाते? करीब दो दशक बाद भी सरकारी बैंकों की यही हालत है। यह सिलसिला आगे भी नहीं चलेगा, इसकी कोई गारंटी फिलहाल नहीं है। सरकारी बैंकों का एनपीए कितना है, इस बारे में ठीक-ठीक कुछ कहना कठिन है, लेकिन इन बैंकों की कार्यकुशलता का आलम यह है कि महज 23 साल पहले खुले एचडीएफसी बैंक की बाजार पूंजी स्टेट बैंक सहित सारे सरकारी बैंकों की कुल बाजार पूंजी से ज्यादा है।

 

पहले नोटबंदी, फिर वस्तु एवं सेवा कर और फिर कोयला खदानों को फिर से निजी क्षेत्र के लिए खोलकर मोदी सरकार ने दिखाया है कि वह अर्थव्यवस्था के हित में अलोकप्रिय कदम उठाने से हिचकिचाती नहीं है। सवाल है कि क्या बैंकों की लूट को रोकने के लिए यह सरकार कोई बड़ा कदम उठाएगी? लोगों को भरोसा है कि प्रधानमंत्री मोदी में ऐसी राजनीतिक इच्छाशक्ति है कि वह ऐसे कदम उठा सकते हैं। क्या इन बैंकों का फिर से निजीकरण होना चाहिए, जैसा कि अर्थशास्त्रियों के एक वर्ग का मानना है या स्टेट बैंक में कुछ सरकारी बैंकों का विलय करके सरकार बाकी बैंकों में अपनी हिस्सेदारी बेच दे? विकल्प बहुत से हो सकते हैं। सरकार के पास सिर्फ एक विकल्प नहीं है और वह यह कि जैसा चल रहा है, वैसा चलता रहे। इस सरकार के जनादेश का सबसे बड़ा संदेश ही यही है कि वह यथास्थिति को तोड़े। इसके लिए जो भी तात्कालिक तकलीफ होगी, लोग उठाने के लिए तैयार हैं। नोटबंदी और जीएसटी इसका उदाहरण हैं। परेशानी के बावजूद लोगों का भरोसा मोदी से डिगा नहीं, पर इस मामले में लोग केवल जांच से संतुष्ट नहीं होने वाले। वे दोषियों को सजा मिलते हुए देखना चाहते हैं। प्रधानमंत्री के समक्ष इस वक्त लोगों के इसी भरोसे को बनाए रखने की चुनौती है।

 

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक तथा वरिष्ठ स्तंभकार हैं)


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